देश में सब से समृद्ध, साक्षर, आधुनिक मिजाज और आर्थिक रुतबे के बावजूद पारसी समुदाय आबादी के लिहाज से सिमटता जा रहा है. देश के शीर्ष उद्योगपतियों में शुमार इस समुदाय के लोगों ने किस तरह से धार्मिक संकीर्णता, धर्मशीलता और दकियानूसी सोच के चलते खुद के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है, बता रही हैं मीरा राय.

आमतौर पर किसी समुदाय पर उस के विलुप्त हो जाने का संकट तब खड़ा होता है जब या तो उस के प्राकृतिक वास यानी हैबिटैट पर किसी तरह का संकट मंडरा रहा हो या वह किसी भयानक कबीलाई युद्ध में उलझ गया हो और अपने दुश्मन से बहुत कमजोर पड़ रहा हो या फिर किसी समुदाय की आर्थिक स्थिति इतनी ज्यादा बदहाल हो गई हो कि अपने सामाजिक वजूद को बचाए रखने के लिए वह अपनी जातीय पहचान तक छोड़ने के लिए तैयार हो.

पारसियों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. वह देश का सब से समृद्ध जातीय समुदाय है. सब से ज्यादा साक्षरता दर इसी समुदाय की है. इस समुदाय का आर्थिक रुतबा भी देश में सब से ज्यादा मजबूत है. बावजूद इस के, अगर पारसी समुदाय अपने अस्तित्व को खोने की ओर लगातार बढ़ रहा है तो इस की वजह है, इस की धार्मिक संकीर्णता. समृद्ध पारसी समुदाय धार्मिक विचारों और सामाजिक सोच के लिहाज से बेहद पोंगापंथी है. जिस नस्लीय श्रेष्ठता को यूरोप ने दूसरे विश्वयुद्ध में छोड़ दिया था और जिस नस्लीय विद्वेष के चलते खुद पारसियों को 10 शताब्दी पहले अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी थी वही पारसी समुदाय आज इस संबंध में कट्टरपंथी शीर्षासन कर रहा है.

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