हिंदुओं में एक वर्ग ऐसा है जो हर हिंदू किताब को, हर हिंदू धर्मग्रंथ को, पुराने से पुराना सिद्ध करने पर तुला रहता है. वह वर्ग यह समझता है कि शायद जो ग्रंथ जितना पुराना होता है उतना ही प्रामाणिक होता है. उस का यह सोचना उस की अस्वस्थ सोच का परिचायक है, क्योंकि प्राचीनता प्रामाणिकता न पर्याय होती है और न हो सकती है. इसीलिए कई बार प्राचीन इमारतों और प्राचीन वृक्षों को नगरपालिका के अधिकारियों को, लोगों की जान की रक्षा करने के लिए गिराना पड़ता है और पुरानी पड़ चुकी व ऐक्सपाइरी डेट लांघ चुकी दवाओं को नष्ट करना पड़ता है. यदि यह नियम हो कि ‘जितनी पुरानी, उतनी प्रामाणिक’ तो इन पुरानी हो चुकी जर्जर इमारतों, पुराने वृक्षों और ऐक्सपाइरी डेट लांघ चुकी दवाओं को तो ज्यादा लाभकारी व प्रामाणिक होना चाहिए, न कि इन्हें लोगों के भले के लिए, उन की रक्षा हेतु, नष्ट व ध्वस्त करना चाहिए. ऐसे में पता नहीं क्यों हिंदू अतीतवादियों का एक वर्गविशेष हर पोथी को पुरानी से पुरानी सिद्ध करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाए रहता है.

निराधार गणना

पिछले दिनों एक राजनीतिक दल ने अपने कुछ पंडेपुरोहितों को इकट्ठा कर गीता जयंती का आयोजन किया था, जिस में यह इतिहास विरोधी घोषणा की गई कि गीता 5115 वर्ष की हो गई है जबकि इतिहासकारों का कहना है कि 3515 वर्ष पहले भारत में गीताकार और गीताभक्तों के आदि पूर्वजों (आर्यों) तक का कहीं कोई नामोनिशान तक नहीं था. अतीतवादी पंडेपुजारी कलियुग की शुरुआत और द्वापर युग के अंत की बात किया करते हैं और उन के आधार पर वर्षों की, बिना किसी आधार के और बिना किसी सन के, गिनती किया करते हैं. यदि पूछा जाए कि ये कलियुग आदि कहां से टपक पड़े तो पंडेपुजारी व उन के पैरोकार पुराणों का नाम ले लिया करते हैं, जबकि पुराण ग्रंथ स्वयं अप्रामाणिक और अर्धसत्य हैं. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना है कि पुराण विषमिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं. यदि पल भर के लिए पुराणों को प्रामाणिक मान भी लें तो प्रश्न पैदा होता है कि तुम जिस कलियुग की शुरुआत की बात करते हो, आप के आदरणीय पुराण उस कलियुग की शुरुआत की गई तिथियां बताते हैं, जिन में हजारों वर्षों का अंतर है.

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