दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक येरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की मंशा जाहिर करके अमेरिका ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. इसे लेकर दुनिया भर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, वे काफी तीखी हैं. कुछ देर के लिए अगर पश्चिम एशिया के देशों को छोड़ भी दें, तो फ्रांस जैसे नाटो में उसके सहयोगी देश ने भी इस मंशा का खुला विरोध किया है. बाकी दुनिया भी इसे लेकर काफी असहज दिख रही है.

यह लगभग तय माना जा रहा है कि अगर ऐसा होता है, तो पश्चिम एशिया एक बार फिर बड़ी अशांति की ओर बढ़ने लगेगा. बेशक इससे इजरायल और यहूदी विश्व को किसी तरह की मानसिक संतुष्टि मिले, लेकिन इससे इजरायल की मुश्किलें भी बढ़ेंगी ही. फलस्तीनी उग्रवाद का तेवर और तीखा होना तो तय ही है, कई क्षेत्रीय समीकरण भी बदल जाएंगे.

तुर्की ने पहले ही घोषणा कर दी है कि अगर ऐसा होता है, तो वह इजरायल से रिश्ते तोड़ लेगा, पूरी संभावना है कि जल्द ही मिस्र भी शायद यही करे. पश्चिम एशिया में यही दो देश हैं, जिनके इजरायल से कहने लायक कुछ रिश्ते हैं, बाकी से तो बाकायदा उसकी दुश्मनी ही है.

येरुशलम ऐसा शहर है, जो यहूदी, ईसाई और मुस्लिम, तीनों धर्मो का पवित्र स्थान माना जाता है. यह शहर तीनों धर्मो की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है और तीनों के ही बड़े तीर्थस्थल यहां पर हैं. यही वजह है कि 1947 में जब संयुक्त राष्ट्र ने फलस्तीन को दो हिस्सों में बांटकर इजरायल बनाने का प्रस्ताव पास किया, तो येरुशलम को इससे अलग स्वतंत्र दर्जा दिया गया. लेकिन एक साल बाद ही हुए अरब युद्ध में इजरायल ने इस शहर के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लिया. यह शहर ऐतिहासिक और धार्मिक कारणों से इजरायल के लिए महत्वपूर्ण था, इसलिए इस हिस्से को उसने राजधानी के रूप में न केवल विकसित किया, बल्कि अपना ज्यादातर सरकारी कामकाज यहीं से शुरू कर दिया. हालांकि दुनिया के ज्यादातर मुल्कों ने कभी इसको मान्यता नहीं दी और इजरायल की राजधानी के रूप में तेल अवीव को ही अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलती रही.

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