लंबे अरसे के बाद कांग्रेस को नया अध्यक्ष मिलने जा रहा है. राहुल गांधी के नाम की आज होने वाली आधिकारिक घोषणा दरअसल देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के मुखिया के तौर पर उनकी हैसियत को औपचारिक जामा पहनाना है. राहुल गांधी के लिए बतौर कांग्रेस अध्यक्ष चयन तो आसान है, पर व्यावहारिक तौर पर पार्टी का नेतृत्व करना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सकने वाले एक भरोसेमंद नेता के रूप में स्वीकार्य होना कहीं ज्यादा कठिन. इसीलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनकर कांग्रेस में किस तरह का बदलाव ला पाते हैं?

कांग्रेस 2014 के आम चुनाव में मिली करारी शिकस्त से हलकान है और लोकसभा में इसके महज 44 सदस्य हैं, जो अपने इतिहास में इसकी अब तक की सबसे कम संख्या है. इतना ही नहीं, बाद में राज्य विधानसभा चुनावों में भी इसे एक के बाद दूसरी हार मिली है, जिसने पार्टी के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया है. स्पष्ट है, मौजूदा संकट पार्टी के 132 वर्षों के इतिहास के किसी भी दौर से कहीं अधिक बदतर है.

राहुल युग की शुरुआत तो हो रही है, पर उनके सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं. पहली, खुद की नेतृत्व-शैली में बदलाव लाना और दूसरी, पार्टी ढांचे में सुधार करना व यह संदेश देना कि पार्टी एक प्रमुख राजनीतिक आवाज बनने जा रही है.

सबसे पहले राहुल को वंशवाद के सवाल से टकराना होगा, जिसके खिलाफ चारों तरफ एक माहौल बन गया है. जिस लोकतांत्रिक आग्रह व आकांक्षा के साथ नए भारत को परिभाषित किया जाता है, उसमें वंशवाद पर ही भरोसा कारगर नहीं माना जाता. मगर कांग्रेस के लिए मां से बेटे को मिला उत्तराधिकार पार्टी की प्रकृति से जुड़ा है. यह वही पार्टी है, जिसे 1970 के दशक के शुरुआती दौर में इंदिरा गांधी ने एक केंद्रीय संस्था में बदल दिया था. परिवार के बिना पार्टी कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि नेहरू-गांधी परिवार का ही कोई सदस्य पार्टी में परस्पर विरोधी दिशाओं में चलने वाले तत्वों को एकजुट रख सकता है.

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