राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ पिछले वर्ष सभी विरोधी दलों को एक मंच पर लाने की मुहिम शुरू कर नैशनल हीरो के रूप में उभरे नीतीश कुमार एक बार फिर से संघ की गोद में जा बैठे हैं. साल 2013 में भाजपा का साथ छोड़ कर लालू प्रसाद यादव के कंधे पर चढ़ कर सत्ता हासिल करने वाले नीतीश ने 26 जुलाई को लालू, महागठबंधन और जनादेश का दामन झटक कर भाजपा के कमल में रंग भर दिया. भाजपा के साथ मिल कर उन्होंने बिहार में सरकार बना ली है. ऐसा कर उन्होंने अपने संघमुक्त भारत के नारे को अपने ही हाथों मिट्टी में मिला दिया.

नीतीश कुमार न संघवाद और भाजपा के खिलाफ देशव्यापी मुहिम छेड़ने के लिए तमाम समाजवादियों और सियासी दलों को एक झंडे तले आने की गुहार लगाई थी. इस के पीछे उन की निगाहें साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर टिकी हुई थीं. उत्तर प्रदेश में भाजपा की भारी जीत के बाद उन्हें महसूस होने लगा कि नरेंद्र मोदी और भाजपा को फिलहाल मात देना मुमकिन नहीं है. सो, वे लालू से नाता तोड़ने और भाजपा से हाथ मिलाने के मौके ढूंढ़ने लगे या कहिए कि माहौल बनाने लगे. तेजस्वी यादव और मीसा भारती के घर पर सीबीआई, इनकम टैक्स और ईडी के छापे पड़ने के बाद उन्हें वह मौका मिल गया, जिस का वे कई महीनों से इंतजार कर रहे थे. यह प्रायोजित था या नहीं, कभी मालूम न होगा.

कहां गई एकजुटता

नीतीश कई मौकों पर यह कहते रहे थे कि भाजपा और संघ की आजादी की लड़ाई में कोई भूमिका नहीं रही है, इस के बाद भी वे राष्ट्रभक्ति का ढोल पीटते रहते हैं. भगवा झंडा फहराने वालों को कभी भी तिरंगे से कोई वास्ता नहीं रहा. वे लोग तिरंगे पर लैक्चर झाड़ते हैं. साल 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने कई वादे और दावे किए थे पर सारे हवा हो गए. न कालाधन देश में आया और न ही लोगों के खाते में 15-15 लाख रुपए आए. किसानों को समर्थन मूल्य भी नहीं मिला. बेरोजगारी खत्म करने के नाम पर केंद्र की सरकार को वोट मिला था, पर क्या हुआ?

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