मध्यप्रदेश में कोई 30 बागी दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस से मैदान में हैं, इनमे से 20 के लगभग सत्तारूढ़ दल भाजपा के हैं इनमें से भी कुछ चेहरे ऐसे हैं जो कभी पार्टी छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकते थे, मसलन बुंदेलखंड इलाके के बुजुर्ग कद्दावर नेता डाक्टर रामकृष्ण कुसमारिया, सरताज सिंह, केएल अग्रवाल और बेरसिया सीट से निर्दलीय लड़ रहे ब्रह्मानन्द रत्नाकर जैसे 2 दर्जन नेता, जिन्होंने टिकिट न मिलने पर पार्टी छोड़ दी और अब पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को हराने दिन रात एक कर रहे हैं.

वैसे तो हर चुनाव में बागी समीकरण गड़बड़ाते हैं लेकिन 2018 का मध्यप्रदेश विधानसभा का चुनाव इसलिए भी याद किया जाएगा कि इसमें बागियों की भरमार है. किसी दल के बागी ने अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे पार्टी के अनुशासन और साख की परवाह नहीं की है. ये वही नेता हैं जो कल तक पार्टी के प्रति निष्ठा और आस्था का राग अलापते थकते नहीं थे. अब इस आस्था और निष्ठा के चिथड़े भी चुनाव में यही लोग उड़ा रहे हैं तो साफ लगता है कि राजनीति अब शुद्ध कारोबार बन चुकी है जिसमें हर कोई अपना नफा नुकसान देख आगे का कदम उठाता है.

इनसे तो ये बेहतर

मुमकिन है बागियों के साथ वाकई ज्यादती हुई हो जिससे दुखी होकर वे पार्टी के प्रति आस्था निष्ठा भूल चुके हों, लेकिन इनसे तो वे अस्थाई कार्यकर्ता बेहतर साबित हो रहे हैं जो दिहाड़ी पर पार्टी का झण्डा उठाकर रैलियों और जनसभाओं में भीड़ बढ़ा रहे हैं. जी हां राजधानी भोपाल सहित बड़े शहरों इंदौर, जबलपुर, रीवा, सतना, उज्जैन और ग्वालियर में इन दिनों कोई बेरोजगार नहीं है. दोनों प्रमुख दलों ने तीन सौ रुपये रोज पर कार्यकर्ताओं की भर्ती कर रखी है, काम भी कठिन नहीं बस पार्टी का झण्डा हाथ में लहराते सभाओं और रैलियों में शिरकत करना है. अधिकांश शहरों में इन कार्यकर्ताओं की एडवांस बुकिंग हो चुकी है. कई जगह तो मासिक वेतन पर कार्यकर्ताओं की भर्ती की गई है.

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