मायावती के तीसरे मोर्चे की अवधारणा विपक्षी एकजुटता की राह में सबसे बडा रोड़ा है. एक जैसी विचारधारा के बाद भी एक मंच पर खड़े न हो सकने की मजबूरी भाजपा की सबसे बडी ताकत बनेगी. ऐसे में मायावती विलेन साबित हो सकती है. मायावती तीसरे मोर्चे की पंसद तभी बन सकती है जब बसपा दूसरे नम्बर की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकेगी.

कहने के लिये भले ही तीसरा मोर्चा भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए यानि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा की खिलाफत कर रहा हो पर असल में वह विपक्ष की एकता में बाधक होगा. जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए यानि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन कमजोर होगा. देश की राजनीति में गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की अवधारणा कभी सफल विकल्प नहीं बन सकी.

ऐसे में एनडीए के खिलाफ होने के बाद भी तीसरा मोर्चा उसका मददगार होगा. लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकजुटता न होने से एनडीए के लिये लड़ाई सरल हो जायेगी. उसे सत्ता में पहुंचने से नहीं रोका जा सकता है. इसका साफ चुनावी गणित है. लोकसभा चुनाव के बाद संसद में सबसे बड़ी दो पार्टियों में अभी भी भाजपा और कांग्रेस का नाम ही रहता है. ऐसे में कोई भी मोर्चा इन दो दलों को दरकिनार नहीं कर सकता है.

क्षेत्रिय दलों में समाजवादी पार्टी, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल, शिवसेना और दक्षिण भारत के क्षेत्रिय दल अपने अपने इलाको के विधानसभा चुनाव में भले ही सरकार बनाने में सफल हो जाते हों पर  राष्ट्रीय स्तर पर उनका प्रदर्शन सरकार बनाने की गणित तक नहीं पहुंचता है.

क्षेत्रिय दलों में अपने अपने नेता अहम होते हैं. ऐसे में एकजुट होकर वह सरकार बनाने की हालत में नहीं होते. भाजपा के विजय रथ को सबसे पहले बिहार में रोका जा सका था. उसका कारण यह था कि बिहार में भाजपा का मुकाबला करने में कांग्रेस, जदयू और राजद का महागठबंधन तैयार हो गया था. भाजपा को हराने और अपनी सरकार बनाने के बाद भी महागठबंधन चल नहीं सका. जिससे वापस बिहार में भाजपा-जदयू की सरकार बन गई. कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनते बनते रह गई क्योंकि चुनाव के बाद कांग्रेस और जेडीएस नेताओं ने बेहतर तालमेल दिखाया.

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