धरती की देह पर उगे पेड़
जो सदा मौन हैं
हर पेड़ में नजर आया मुझे तुम्हारा चेहरा
इन पेड़ों की छाया तले
बुजुर्गों के लगे ठहाके
मनचलों की ताश की बिसातें बिछीं
बालकों को शाखों पे चढ़ते देखा
किशोरियों ने झूला डाला
प्रेमी जोड़ों ने खाल को छील, दिल बनाए

किंतु इन पेड़ों के चेहरों पर
कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी
ठीक तुम्हारी तरह
और अब जैसे आदी हो गई हूं
इस मौन की, पेड़ों की भी और तुम्हारी भी

इन पेड़ों ने और तुम ने झेले हैं
न जाने कितने जलते और सुलगते मौसम
दर्द की बारिश में भारी बौछारों में
भीगते हो तुम भी
दुख की धूप में झुलस
सच पूछो मुझे यह मौन जरा नहीं भाता
न पेड़ों का न तुम्हारा

काश ये पेड़
कटिहारों के हर आघात का जवाब
चीख कर दे सकें
और तुम प्रेम के हर आभास का उपहार
छीन कर ले सको
अस्वीकृति में सिर हिलाओ और
स्वीकृति में बांहें फैलाओ
सदैव मौन होना तो पत्थर होना है
और पत्थर की मूरत कुछ नहीं पाती
केवल देखी जाती है
लोग आते हैं और निर्लज्जता से आंखें मूंद
खड़े हो जाते हैं.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...