रातरात भर प्रियतम की बांहों में सिमटी

छुईमुई सी कली

कैसे कहूं क्याक्या गुजरी

मिसरी की डली

 

माथे की बिंदिया चमकी

सावन की बूंदें बरसीं

मनप्राणों में भीगी

बूंदों से चोली भीगी

और भीगा यह तनमन

घूंघट खुली सी रह गई

कली खिली, फूल बन गई

हौलेहौले भीग गई बनारसी सारी

घांघर तेरी भांवर बन गई

 

मन एक भंवरा

चांद निकल पूनम का आया

शय्या पर सोई क्वांरी

सद्य: बन गई नारी.

 

- सनन्त प्रसाद

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...