चमन ऐसे न मुरझाता

अगर तुम मुसकरा देते

नया इक फूल खिला जाता

अगर तुम मुसकरा देते.

यही होता कि छंट जाता

अंधेरा इन फिजाओं का

तुम्हारा क्या बिगड़ जाता

अगर तुम मुसकरा देते.

बहारों पर खिजां जैसा

ये आलम क्यूं है कुछ सोचो

ये मौसम झूमता गाता

अगर तुम मुसकरा देते.

गजल के हुस्न पर

आहो-फुगां का रंग क्यूं चढ़ता

मेरा हर शै मुसकाता

अगर तुम मुसकरा देते.

मुहब्बत बरतरफ

रस्मे-तकल्लुफ भी कोई शै है

दिले-कम्बख्त रह जाता

अगर तुम मुसकरा देते.

यूं ही ये जुल्फ की मानिंद

नहीं अच्छा बल खाना

हमारा दिल भी लहराता

अगर तुम मुसकरा देते.

लबेनाजुक की ये सुर्खी

‘यकीन’ उस पर ये काला तिल

ये तिल कुछ और खिल आता

अगर तुम मुसकरा देते.

       - पुरुषोत्तम ‘यकीन’

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