सांसें थकथक के चलती रहीं रात भर
रोशनी यूं पिघलती रही रात भर
एक कोहरा सा शीशे पर छाया रहा
मैं बर्फ पर्वत पर ढलती रही रात भर
दर्द खोने का सुबह तक जागा किया
पीड़ा रुकरुक के चलती रही रात भर\
चांद बादल के टुकड़े में छिपछिप गया
मैं चांदनी में ढूंढ़ा करती रही रात भर
धूप थक कर अंधेरों में गुम हो गई
रात तिलतिल के ढलती रही रात भर
कोई यादों के जंगल में भटका किया
मैं चांदनी जैसे झरती रही रात भर
ओस हाथों में ले, चेहरा धोती रही
मैं तारों से मांग भरती रही रात भर
सुबह मिलने की इक चाह में
रात बनती संवरती रही रात भर
कोई तो था, कल जो ठहरा यहां
एक पल दम लिया, फिर चला राह पर
और सांसों के जलते अलाव पर
मैं रोतीसिसकती रही रात भर.
- उर्मिला सिंह
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