सपनों में अपने न मिलते

अपनों में सपने न मिलते

मिल जाते हैं यदि कहीं तो

भूखे मिलते प्यासे मिलते

लालच से किसी ग्रास में

नयनों के ही कहीं पास मैं

अपनों से मिलने की ललक हो

सपनों के खिलने की झलक हो

जीवन बन जाए सब का उपवन

सिर के ऊपर अपना फलक हो

अनचाही सी किसी प्यास में

नयनों के ही कहीं पास मैं

अपने तो अपने ही होते

कुछ सपने भी अपने होते

बिन सपने कुछ बात न बनती

अपनों बिन अपनी क्या गिनती

मन के सच्चे इस प्रयास में

नयनों के ही कहीं पास मैं.

       

- जितेंद्र मोहन भटनागर

 

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...