मशहूर लेखक व निर्देशक तथा फिल्म निर्माण कंपनी ‘‘फैंटम’’ के सदस्य विक्रमादित्य मोटवणे इन दिनों अपने निर्देशन में बनी फिल्म ‘‘ट्रैप्ड’’ को लेकर काफी शोहरत बटोर रहे हैं. बॉलीवुड के तमाम कलाकार व फिल्मकार उनकी फिल्म व उनके निर्देशन की तारीफ कर रहे हैं, मगर विक्रमादित्य मोटवणे को यह बात अखरती है कि सेंसर बोर्ड से लड़ाई के मसले पर बॉलीवुड एकजुट नहीं हो पाता. जबकि उनकी कंपनी ने ‘उड़ता पंजाब’ के लिए अदालत तक सेंसर बोर्ड को घसीटा था.

जब ‘ट्रैप्ड’ के प्रमोशन के सिलसिले में विक्रमादितय मोटावणे से हमारी मुलाकात हुई तो व्रिकमादित्य मोटवणे से हमने सीधा सवाल किया कि सेंसर बोर्ड से आपको बड़ी शिकायत रहती है, पर आप यानि कि फिल्म इंडस्ट्री कोई बड़ा ठोस कदम क्यों नहीं उठाती? इस पर ‘‘सरिता’’ पत्रिका से खास व एक्सक्लूसिब बात करते हुए विक्रमादित्य मोटावणे ने कहा- ‘‘फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ के समय हम अदालत तक गए. पर हमारी फिल्म इंडस्ट्री में एकता नहीं है. हम लोग एकजुट होकर कोई लड़ाई नहीं लड़ते हैं. हमने अदालत में भी गुहार लगायी. सरकार के पास भी गुहार लगायी है कि सेंसर बोर्ड की गाइड लाइन्स बदली जाए. अब जो ‘लिपस्टिक इन बुरखा’ के साथ हुआ है, वह कमाल हुआ है. अब हम औरत की सोच को लेकर फिल्म नहीं बना सकते. मैं इतना वरिष्ठ नहीं हूं कि सभी को इकट्ठा कर कह सकूं कि चलो लड़ाई लड़कर समस्या को खत्म कराते हैं. दूसरी तरफ बॉलीवुड हर किसी के लिए सॉफ्ट टारगेट हैं. हम लोग टैक्स बहुत भरते हैं, फिर भी हमीं पर हथौडे़ बहुत चलते हैं. लोग सड़क पर सिगरेट पीते हैं, मगर उन पर पुलिस कार्यवाही नहीं करती, पर हम लोगों से कहा जाता है कि नोस्मोकिंग का डिसक्लेमर डालो. कल्चर का सारा ठेका फिल्मवालों पर ही है. हमारी सरकार ब्रिटिश जमाने की सोच के तहत फिल्मवालों पर अंकुश लगाने की कोशिश करती है. हम 18 साल की उम्र में गाड़ी चलाने का लाइसेंस पाते हैं,वोट देने का अधिकार पाते हैं, पर फिल्म देखने का अधिकार नहीं होता. जबकि गाड़ी चलाना तो सबसे ज्यादा खतरनाक है. किसी को भी नुकसान पहुंचा सकता है. मगर हमारे यहां सौ रूपए देकर बड़ी आसानी से ड्रॉयविंग लायसेंस बन जाता है, पर फिल्म को सिनेमाघर में प्रदर्शित करने के लिए सेंसर के लिए कडे़ कानून हैं.’’

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