किसी भी योद्धा के लिये लड़ाई तब बहुत मुश्किल हो जाती है, जब उसे अपने ही फैसले से लड़ना होता है. कांग्रेस की हालत भी कुछ ऐसी ही हो रही है. कांग्रेस में एक राय बनी की पार्टी को युवा और मेहनती नेताओं और कार्यकर्ताओं को आगे लाना है. जब देश के सबसे बडे प्रदेश की चुनावी जंग में उतराने की बारी आई, तो कांग्रेस ने गुलाम नबी आजाद जैसे पुराने नेताओं को प्रदेश प्रभारी बना दिया. गुलाम नबी आजाद के बाद मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उतारने की अंदरखाने कांग्रेस में चर्चा चल रही है. कांग्रेस को अगर उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में खड़े होना है, तो उसे पुराने चेहरों के मोह से आजाद होना पड़ेगा. दरअसल कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने पुराने वोट बैंक मुसलिम, ब्राहमण और दलित गठजोड को खोजना चाह रही है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमजोर हालत को देखते हुये यह नामुमकिन लग रहा है कि केवल जातीय चेहरो को देखकर लोग जुड़ सकेंगे. उत्तर प्रदेश में अलग अलग जातियों के दल बन चुके है. सत्ता में रहते हुये वह कांग्रेस से कहीं अधिक मजबूत और प्रभावी भी है. उनके नेता आर्थिक और सामाजिक रूप से बहुत मजबूत और दंबग हालत में हैं. 1990 से पहले की राजनीति और आज के दौर की राजनीति में बहुत बडा बदलाव हो चुका है. आज की राजनीति में मनीपावर का प्रयोग और असर बढ गया है. पुराने कांग्रेसी नेताओं में कोई उत्साह नजर नहीं आता. वह केवल कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में अपना दखल बनाये रखने के लिये कैमरों के आगे चमकते दिखते हैं.

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