उत्तर प्रदेश में कौन कहां है? सरकार बनी सपा आपसी लड़ाई लड़ते हुए, मरहम-पट्टी कर रही है. बसपा बिखराव के साथ संभलने में लगी है. भाजपा अपने को जितना मजबूत दिखा रही थी उतनी है नहीं. ‘265 प्लस‘ का नारा, कमजोर पड़ा है. मोदी छाप सर्जिकल स्ट्राइक का कोरामिन उसे मिल गया है. कांग्रेस सरकार बनाने के इरादे को मजबूत कर रही है. सोनिया गांधी का बनारस रोड शो, राहुल गांधी की खाट सभायें सफल रहीं. हर वर्ग में बनती उसकी नयी पहचान है. कह सकते हैं, कि कांग्रेस में एकजुटता बढ़ी है. विश्वास बढ़ा है. लोग तीन दशक बाद प्रदेश के लोग कांग्रेस को देख और सुन रहे हैं.

लालू-नीतीश के होने की उम्मीद थी, वह नहीं है. वामपंथी चुनाव परिदृश्य में, अब तक कहीं नहीं. लखनऊ में आयोजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक कार्यक्रम में जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार पहुंचे थे. उन्हें पार्टी से पूछना और बताना चाहिये कि वामपंथी राजनीतिक दल कहीं क्यों नहीं हैं? क्या वे इतने भी नहीं हैं, कि चुनाव को वर्ग संघर्ष को स्पष्ट करने का जरिया बना सकें? जबकि फासीवाद का पहला हमला उन पर और उस वर्ग पर होता है, जो समाज में बहुसंख्यक है. जिसकी शुरुआत हो चुकी है. शायद उन्होंने मान लिया है, कि उत्तर प्रदेश उनके लायक नहीं है, जहां धर्म, जाति और पुरातन की जकड़ है. जहां वर्ग नहीं वर्ण है. जहां आदमी नहीं हिंदू, मुसलमान, दलित रहते हैं. जहां ब्राम्हण, क्षत्रीय और सिंह बने यादव हैं.

भाजपा का समीकरण यही है, और कांग्रेस भी इसी समीकरण को साध रही है. सपा, बसपा इस समीकरण से अलग नहीं. इन सबके अलावा जो भी है, वह बेहाल है, उनकी बस जुड़ने की राजनीति है. और जुड़ने के लिये आधार वह पलड़ा है, जो सही तरीके से ‘तौलना‘ जाने. तराजू कहीं नहीं, बस मोल-भाव है. वैसे सभी राजनीतिक दल सरकार बनाने के लिये चुनावी गठजोड़ के साथ अखाड़े में अकेले दम ठोक रहे हैं. भाजपा भी अपना दल- अनुप्रिया पटेल को जोड़ने के बाद थम गयी है और संघ के स्वयं सेवकों की सक्रियता बढ़ गयी है. जो जीत सके, उसे अपना बनाने की नीति है.

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