कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ‘27 साल यूपी बेहाल’ का नारा देकर शीला दीक्षित को प्रदेश में मुख्यमंत्री का दावेदार बनाकर पेश किया था. समाजवादी पार्टी के साथ हो रहे गठबंधन ने कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के इस चेहरे को पैर वापस खींचने के लिये विवश कर दिया है. शीला दीक्षित कहती हैं ‘सपा-कांग्रेस गठबंधन होने की दशा में मै मुख्यमंत्री की दावेदारी से अपना नाम वापस ले लूंगी.’ यह सच है कि कांग्रेस से मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी बनने के बाद भी शीला दीक्षित का मुख्यमंत्री बनना सरल काम नहीं था. इसके बाद भी अगडी जातियों को उम्मीद थी कि शायद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई अगडी जाति का उम्मीदवार आया है. इससे अगडी जातियों को अपना वजूद वापस मिलता दिखा था. अगडी जातियों खासकर ब्राहमण मतदाताओं की रूचि वापस कांग्रेस में हो रही थी. सपा के गठबंधन के बाद इस उम्मीद पर पानी फिर गया है.

राजनीतिक चिंतक और लेखक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं ‘नारायण दत्त तिवारी के बाद 1988 के बाद से केवल 2 मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. यह दोनों ही बहुत कम समय मुख्यमंत्री रहे. 1990 में मंडल कमीशन के बाद उत्तर प्रदेश में अगडी जातियां हाशिये पर आ गईं. केवल सत्ता पर से ही अगडी जातियों का प्रभाव नहीं घटा आर्थिक रूप से भी यह जातियां कमजोर होने लगी. अगडी जातियों को नौकरियों मिलनी बंद हुई. खेती की खराब दशा होने लगी और बिजनेस में भी दूसरी जातियों का दखल बढने लगा.समय के साथ मिली चुनौतियों के सामने अगडी जातियां अपने को दौड़ में शामिल नहीं रख पाई. राजनीतिक स्तर पर बनने वाली योजनाओं में अगडी जातियों को दरकिनार किया गया. अगडी जातियों के जो नेता और अफसर शासन सत्ता के केन्द्र में दिखते हैं, वह अपने वजूद को बचाने में लगे रहे.’

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