चुनाव से पूर्व ओपिनियन पोल यानी सर्वेक्षण अंगूर जैसे हैं कि पक्ष में हों तो मीठे, खिलाफ  हों तो खट्टे. वैसे भी सर्वेक्षण कहते कुछ हैं और नतीजा होता है कुछ और. सवाल यह उठता है कि सर्वेक्षण के जरिए मतदाताओं का मूड भांपने का यह पैमाना सही है या फर्जी, पड़ताल कर रहे हैं जगदीश पंवार.

चुनावी सर्वेक्षणों पर पाबंदी को ले कर बहस चल पड़ी है. कुछ राजनीतिक दल चुनावी सर्वे के पक्ष में हैं तो कुछ प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं. सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो पक्ष में तर्क भी दिए जा रहे हैं. कांग्रेस ने प्रतिबंध लगाने की मांग की है. उस ने चुनाव आयोग से कहा है कि वह ओपिनियन पोल के पक्ष में नहीं है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी रोक के पक्ष में हैं.

वहीं, भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा और वामपंथी दल पाबंदी नहीं चाहते. कांग्रेस ने तो सर्वेक्षणों को ले कर टैलीविजन चैनलों पर होने वाली बहस से अपने प्रवक्ताओं को दूर कर लिया है क्योंकि अब तक हुए सर्वेक्षणों में कांग्रेस की हालत पतली बताई गई है.

प्रतिबंध के समर्थकों की दलील है कि चुनाव पूर्र्व सर्वे मतदाताओं की सोच पर असर डालते हैं और इन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. सर्वे के विरोधी भी यह मानते हैं कि ये प्रायोजित होते हैं और कोईर् भी पैसा दे कर अपने पक्ष में सर्वे करवा सकता है. सर्वे के पैरोकारों का मानना है कि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध होगा.

भाजपा का कहना है कि ज्यादातर सर्वेक्षणों के नतीजों में कांग्रेस की हार सामने आने से वह डर गई है. भाजपा हालांकि पहले ओपिनियन पोल के खिलाफ थी. अटल बिहारी के समय भाजपा ने सर्वदलीय बैठक में प्रतिबंध पर सहमति जताई थी. वह चुनाव सुधार के बहाने अध्यादेश भी लाना चाहती थी पर अब सर्वेक्षणों में पार्टी अपनी बढ़त को देखते हुए प्रतिबंध को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दे रही है.

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