उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग प्रदेश के बाहरी नेताओं को बहुत आकर्षित करती है. यहां पर अपनी ताकत दिखाना, सबका सपना होता है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि उत्तर प्रदेश से देश की गददी का सफर तय होता है. ऐसे में दूसरे प्रदेशों में राज कर रही पार्टियों के नेता चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में उनका दखल बढ़ जाये.

परेशानी की बात यह है कि उत्तर प्रदेश के वोटर ऐसे बाहरी पार्टियों के मुखिया और उनके दलों को खास तबज्जों नहीं देते हैं. लोकसभा के चुनाव हो या विधानसभा के बाहरी नेता और उनकी पार्टियां यहा आकर धराशायी हो जाते हैं. ऐसे में यह सवाल भी लाजमी है कि जनता दल(यू) और उसके नेता नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में कैसे सफल होंगे?

उत्तर प्रदेश में तृणमूल कांग्रेस और उनकी नेता ममता बनर्जी बहुत सक्रिय रही हैं. इसके बाद भी उनको कोई बडी सफलता नहीं मिली. राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता शरद पवार, लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान, राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव, आरपीआइ के नेता रामदास अठावले और शिवसेना इसके प्रमुख उदाहरण हैं. इसी तरह से तमाम मुस्लिम पार्टी और उसके नेता उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ते जरूर हैं पर इससे उनको कोई लाभ नहीं होता. चुनाव मैदान में ऐसे नेता और उनके दल उत्तर प्रदेश में अपना असर नहीं छोड़ पाते है.

इस बार विधानसभा के चुनावों में एआईएमआईएम नेता ओवैसी का नाम बहुत चल रहा है. ऐसे में कई राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि ओवैसी कुछ बदलाव कर सकते हैं. जो लोग उत्तर प्रदेश के मतदाता के मिजाज को समझते हैं वह यह मानने को तैयार नहीं है कि बाहरी दल और उनके नेता उत्तर प्रदेश में बदलाव जैसी पोजीशन में आ सकते हैं.

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