‘अच्छे दिन कभी नहीं आते. भारत असंतुष्ट आत्माओं का महासागर है. इस की वजह से कभी भी किसी को किसी चीज में समाधान नहीं मिलता. जिस के पास साइकिल है, उसे गाड़ी चाहिए. जिस के पास गाड़ी है, उसे कुछ और. वही पूछता है कि अच्छे दिन कब आएंगे...’

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने ये शब्द मुंबई में 13 सितंबर, 2016 को उद्योग जगत से जुड़े एक समारोह में कहे थे. उन की आवाज में कसक भी थी और मीडिया के लिए चेतावनी भी थी कि वह अच्छे दिनों को गलत रूप में पेश न करे. चूंकि वे खुद ही सच बोलने पर आमादा हो आए थे, इसलिए उन्होंने यह भी ईमानदारी से मान लिया कि यह अच्छे दिनों का नारा तो सरकार के गले की हड्डी बन गया है.

इस हड्डी को निगलते तो नहीं बन रहा, पर नितिन गडकरी ने इसे उगलने की कोशिश यह कहते हुए जरूर की कि दरअसल, अच्छे दिनों का नारा पहले के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने प्रवासी भारतीयों के एक कार्यक्रम में दिया था. नरेंद्र मोदी ने तो इस के जवाब में यह कहा था कि अगर हमारी सरकार आएगी, तो अच्छे दिन आएंगे, इसलिए इस का मतलब प्रगतिशील या तरक्की के रास्ते से लगाना चाहिए, न कि इस को शाब्दिक अर्थ से आंका जाना चाहिए.

नितिन गडकरी से काफी पहले 5 फरवरी, 2015 को ही भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह इसे एक जुमला करार देते हुए यह कह चुके थे कि हर परिवार के खाते में 15-15 लाख रुपए जमा होने की बात भाषण में वजन डालने के लिए बोली गई थी.

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