दलितों में बहुत सारी जातियां अगड़ों की ही तरह पूजापाठ और धार्मिक कर्मकांड करती हैं. बहुजन समाज पार्टी ने राजनीति में दखल बढ़ाने के बाद धार्मिक कर्मकांड, रूढिवादिता के खिलाफ अपनी लड़ाई को छोड़ दिया है. ऐसे में अब दलित जातियां भी धार्मिक रूप से मुसलिमों के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने चुनाव को धार्मिक धुव्रीकरण का रंग दिया तो भाजपा के विरोधी सभी दलों ने मुसलिम आरक्षण को लेकर अपनी आवाज को बुलंद किया. ऐसे में भाजपा के पक्ष में हिन्दू मतों का धुव्रीकरण हो गया.

समाजवादी पार्टी में आपसी विवाद के बाद मुसलिम मतदाता को अपनी ओर खींचने के लिये मायावती ने विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक मुसलिम प्रत्याशी को टिकट दिया है. बसपा प्रमुख इस बात को अपने स्तर से प्रचारित भी कर रही हैं. अगर मुसलिम कार्ड के विरोध में हिन्दू मतों का धुव्रीकरण हो गया तो दलित जातियां बसपा से दूर जा सकती हैं. आर्थिक रूप से दलित और मुसलिम भले ही एक जैसी हालत में हो, पर जहां धर्म की बात आती है दलित हिदू के पक्ष में खड़ा नजर आने लगता है.

दलित चिंतक रामचंन्द्र कटियार कहते हैं ‘बसपा का दलित समाज के उत्थान से कोई बहुत सरोकार नहीं रह गया. बसपा की सरकार के दौरान ही दलित संगठनों पर दबाव डाला गया कि वह दलित महापुरूषों को लेकर संवेदनशील विचारधारा की बात न करे. दलित महापुरूष पेरियार को लेकर बसपा ने दूरी बनाई. उस समय बसपा को ब्राहमण मतों की दरकार थी. ऐसे में वह दलित विचारधारा को दबाने में लग गई. ब्राहमण-दलित गठजोड़ की मजबूरी में बसपा ने अपनी दलित नीतियों से कदम पीछे खींच लिये. जिसके बाद दलित भी ब्राहमणों की राह पर चल दिये. अब दलित की यही सोच धार्मिक आधार पर मुसलिमों के साथ मेल नहीं खाती. ऐसे में दलितों पर मुसलिमों को तरजीह देने की सोच बसपा पर भारी पड़ सकती है. बसपा के दलित नीतियों से हटने के कारण अब दलित बसपा के साथ उस तरह से एकजुट नहीं है जैसे पहले थे’.

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