बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मुलायम, लालू, नीतीश और कांगे्रस ने मिल कर कमर तो कस ली है और एक नया चुनावी तानाबाना तैयार हो गया है पर सियासत के ये धुरंधर अब तक यह साफ नहीं कर सके हैं कि वे जनता से किस नाम पर वोट मांगेंगे? भाजपा विरोध के तोतारटंत नारे के अलावा उन की झोली में कुछ भी नहीं है. बिहार के पिछड़ेपन की दुहाई देने वाले इन नेताओं को याद नहीं है कि बिहार की बदहाली का पूरा का पूरा कलंक उन्हीं के सिर पर आ पड़ा है. पिछले 10 साल तक नीतीश ने राज किया. उस के पहले के 15 साल तक बिहार लालू के हाथों में रहा और उस के पहले के 42 साल तक कांग्रेस का शासन रहा था. ऐसे में तो बिहार की दुर्गति का ठीकरा लालू, नीतीश और कांगे्रस के ही सिर पर फूट रहा है. ऐसी हालत में गठबंधन के तरक्की के दावे और वादे को हजम कर पाना जनता के लिए मुश्किल ही होगा. बिहार को कई साल पीछे ढकेलने वाले ही अब ‘बढ़ता रहेगा बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ का ढोल पीट रहे हैं. इस के अलावा नेताओं ने तो ऊपरऊपर गठबंधन कर लिया है पर उन की पार्टी के कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वे अपने इलाके में किस का और कैसे प्रचार करें? जदयू के नेता और कार्यकर्ता वोटरों को क्या जवाब देंगे कि ‘जंगलराज’ वाले अब उन के दोस्त कैसे बन गए?

इस गठबंधन से दलितों, पिछड़ों और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों का वोट तो इंटैक्ट हो सकता है. वोट का विभाजन कम होने से छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को काफी नुकसान हो सकता है. बिहार में 11 फीसदी यादव, 12.5 फीसदी मुसलिम, 3.6 फीसदी कुर्मी, 14.1 फीसदी अनुसूचित जाति और 9.1 फीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी है. गठबंधन के नेताओं को पूरा भरोसा है कि इन का वोट उन्हें ही मिलेगा. गठबंधन के बनने के बाद अब बिहार में उस की सीधी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग से होनी है. इस से कांटे की लड़ाई के साथ खेल दिलचस्प भी हो गया है. वोटबैंक को मजबूत करने के साथ ही गठबंधन को नए नारे और नीति की दरकार है. गठबंधन के पास बिहार को बचाने से ज्यादा भाजपा से बचने की छटपटाहट है. लालू और नीतीश के हाथ मिलाने से भाजपा के लिए चुनौतियां कई गुना ज्यादा बढ़ गई हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादियों और सामाजिक न्याय के वोट का बिखराव होने का फायदा भाजपा को आसानी से मिल गया था. लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद 10 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में राजद-जदयू के मिलने से काफी फायदा हो गया था. 10 में 6 सीटें गठबंधन ने जीती थीं और 2 सीटों पर भाजपा को कड़ी टक्कर भी दी थी. भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि लालू और नीतीश पिछले 24 सालों से लगातार बिहार की सियासत की धुरी बने हुए हैं और पिछले 20 सालों से वे एकदूसरे की विरोध की राजनीति करते रहे हैं. आज दोनों जिस किसी भी सियासी मजबूरियों की वजह से फिर से साथ मिले हैं, उन का मिलन उत्तर भारत की सियासत में नया विकल्प पैदा करने की उम्मीद जगाता है. इन के गठबंधन को एक झटके में बेअसर करार देना किसी भी माने में समझदारी नहीं कही जाएगी क्योंकि इस गठजोड़ के पास वोट हैं. आज की हालत में भले ही उन का वोट बिखरा और छिटका हुआ हो पर उन में इतनी कूवत है कि विधानसभा चुनाव तक अपने वोटबैंक को काफी हद तक एकजुट कर कामयाब हो कते हैं. दोनों धुरंधरों को कामयाबी महज गठबंधन बना लेने से नहीं, बल्कि अपनी गलतियों को सुधार कर और अहंकार को दरकिनार कर नया एजेंडा बनाने से ही मिलेगी. दोनों बिहार के जमीन से जुड़े नेता रहे हैं, सामाजिक न्याय के मसीहा माने जाते हैं और पिछड़ों, दलितों व अल्पसंख्यकों के वोट पर खासी पकड़ रखते हैं.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...