अरसे से चुनाव दर चुनाव जनता को वादों की नियमित खुराक दे रहे नेता आज भी वादों का लौलीपौप दिखा कर चुनाव जीतने की फिराक में हैं. सवाल है कि जनता को वोट देने के लिए जबतब उकसाती रहे मीडिया, फिल्मी कलाकार और सामाजिक संस्थाएं घिसेपिटे वादों की रट लगाए इन सियासतदानों के गिरेबां क्यों नहीं पकड़ते, पड़ताल कर रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
कतरी सराय, गया (बिहार) के मर्दाना ताकत के इश्तिहारों और राजनेताओं के वादों, दावों व आश्वासनों में एक अद्भुत समानता यह है कि दोनों ही की जरूरत आजादी के बाद से ही बनी हुई है, बावजूद इस हकीकत के कि देश से न बीमार व कमजोर लोग खत्म हुए हैं न ही राजनीति में परेशानियों व समस्याओं का हल ढूंढ़ने वालों का टोटा पड़ा है.
लोकसभा चुनाव का नजारा देख लगता यह है कि चुनाव को भी लोगों के मनोरंजन और वक्त काटने का जरिया बना दिया गया है. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव की तरह पुरानी बातें दोहराई जा रही हैं और 62 साल पुराने वादे किए जा रहे हैं कि बस, इस दफा वोट हमें दे दो फिर आप की सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी, हम सड़कें बनवा देंगे, पानी देंगे, बिजली चौबीसों घंटे मिलेगी, कि सभी को रोजगार मिलेगा, और भ्रष्टाचार तो बस यों चुटकियों में दूर हो जाएगा.
एक बात हजार तरीकों से कैसे की जा सकती है, नेताओं को इस में महारत हासिल है. मंच के सामने इकट्ठा भीड़ बीचबीच व आखिर में थोक में तालियां पीट कर नेता का उत्साह बढ़ा कर चली जाती है. फिर घरों, दफ्तरों और चौराहों पर अपनी राय सार रूप में यह देती है कि ये क्या कर लेंगे, सब एक से हैं, सारी मारामारी कुरसी के लिए है.
इस भीड़ की पीठ पर कई लोग, संस्थाएं, मीडिया, धर्मगुरु और चुनाव आयोग तक लाठी मार रहे हैं कि चलो, वोट डालो, अपनी सरकार चुनो और जागरूकता दिखाओ, तभी उस का भला होगा. इस बार 10-12 फीसदी ज्यादा लोगों ने जागरूकता दिखा भी दी और वोट डाल कर मतदान प्रतिशत बढ़ा दिया. इस भीड़ ने जो चुनावी मौसम में गला फाड़ कर राजनीति पर चर्चा और बहस करती है, दबी आवाज में यह पूछा कि जो वादे आप कर रहे हैं उन्हें पूरे कैसे करेंगे. दबी आवाज में इसलिए कि वोट डालने के लिए उकसाने वालों ने यह नहीं कहा कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों और नेताओं के लुभावने भाषणों पर जिरह मत करने लगना. यह कानूनी अनुबंध नहीं है सिर्फ वादा है जिस पर चल कर नेता को संसद और राजनीतिक दल को सत्ता में पहुंचना है.

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