उत्तर प्रदेश के कैराना की कहानी तो चुनावी बिसात पर सुनी और सुनाई जा रही है. कहानी का जो एंगल अपने मुनाफे के हिसाब से जिस को लाभकारी लगता है वह उसी को सुना रहा है. सचाई यह है कि कैराना जैसे कसबे धार्मिक दूरियों से बनते हैं. इस में नया कुछ नहीं है. ऐसे कसबे सालोंसाल से समाज में बनते हैं. धार्मिक दूरियों से लोग एकदूसरे से दूर रहना पसंद करते हैं. गांव से ले कर शहर तक ऐसी बस्तियां देखी जा सकती हैं जहां केवल एक ही जाति और धर्म के लोग रहते हैं. दूसरी जाति और धर्म के लोग उन बस्तियों में रहना नहीं चाहते. ऐसी बस्तियों का वजूद मनुवाद से जुड़ा है. गांव में सवर्णों के घरों से दूर दलितों और पिछड़ों की बस्तियां बसाई जाती थीं. शहरों में भी बहुत सारे महल्ले एक ही जाति के बसे हुए होते थे. इन महल्लों का नाम इन में रहने वाले लोगों की जाति के नाम पर रखा जाता था. मनुवादी सोच यह थी कि गांव, बस्ती और महल्ले के नाम से ही पता चल जाए कि रहने वाला किस जाति या धर्म का है.

यह सोच आगे भी बढ़ती रही. देश की आजादी के बाद जाति और धर्म के नाम पर राजनीति शुरू हुई तो यह सोच और भी गहरी होती चली गई. मनुवाद ने जहां समाज को जाति के नाम पर बांटा, वहीं राजनीति ने धर्म के नाम पर पूरे समाज को बांट दिया. कई ऐसे शहर और महल्ले बस गए जो एक ही धर्म के लोगों के थे. पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ जिले तो इस के लिए मशहूर थे. मुसलिम बाहुल्य इन जिलों में बहुत पहले एक ही धर्म के 2 वर्गों के बीच झगडे़ होते थे. अयोध्या में राममंदिर आंदोलन के बाद शुरू हुई राजनीति ने धार्मिक दंगों को हवा देने का काम किया. आपस में दूरियां बढ़ीं तो दंगे होने लगे. यह वह समय था जब हिंदू और मुसलिम 2 अलगअलग खेमों में बंट गए. सही मानो में देखा जाए तो सामाजिक सामंजस्य का तानाबाना वहीं से टूटने लगा. ऐसे हालात से बचने के लिए 2 धर्मों के लोग एकसाथ खडे़ होने के बजाय एकदूसरे से दूर होने लगे. उन महल्लों में अपने मकान और दुकान बेच कर लोग नई जगह में अपनी आबादी के बीच बसने लगे. दंगे और तनाव असुरक्षा की भावना को लगातार बढ़ाते गए.

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