नेताओं के करीब रहने वाले ज्यादातर नौकरशाहों के मन में जब सियासी महत्त्वाकांक्षा हिलोरें मारती है तो वे सियासतदां बनने को निकल पड़ते हैं. सवाल है कि अब तक जितने भी नौकरशाह सियासी अखाड़े में कूदे हैं उन में से कितनों ने ढर्रे पर घिस रही सियासत को बदला है या फिर देश का कोई भला किया है? पड़ताल कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

‘मैं चाहूं तो अपनी नौकरी छोड़ कर नेता बन सकता हूं लेकिन तुम लोग आईएएस या छोटामोटा अफसर भी नहीं बन सकते हो.’ यह डायलौग भाजपा के नेता यशवंत सिन्हा ने एक नेता से तब कहा था जब वे आईएएस अफसर थे और झारखंड के गिरिडीह जिले में कमिश्नर थे. यशवंत सिन्हा की तरह कई नौकरशाह नौकरी छोड़ कर या नौकरी से रिटायर होने के बाद सियासत के अखाड़े में कूदते रहे हैं. सब से ताजा मिसाल मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह की है जिन्होंने हाल ही में इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए. इसी तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं, जिन्होंने रैवेन्यू सर्विस की अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर राजनीति की राह पकड़ी और काफी जल्दी उन्हें कामयाबी भी मिल गई.

सवाल यह उठता है कि नौकरशाहों का सियासत में आने का ट्रैंड क्यों बढ़ रहा है? क्या उन के राजनीति में आने से राजनीति या देश का कोई भला हो रहा है? वे लोग आम नेताओं से खुद को कितना अलग साबित कर पाते हैं? नौकरशाही के उन के अनुभवों का पार्टी या सरकार चलाने में कोई फायदा मिल पाता है? सिस्टम को बदलने की आवाज बुलंद कर राजनीति में उतरे नौकरशाह सिस्टम को बदल पाते हैं या फिर खुद ही बदल कर घिसेपिटे सिस्टम में शामिल हो कर मलाई जीमने लगते हैं?

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