उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटबैंक खुद को भले ही चुनावों में जीत की कुंजी मानता हो पर सचाई कुछ और ही है. राज्य की राजनीति में ब्राह्मण वोटबैंक और जाति समीकरण की स्थिति का जायजा ले रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

उत्तर प्रदेश में कुछ सालों से ऐसी भूमिका बनाई जा रही है कि ब्राह्मण एक मजबूत वोटबैंक बन गया है. वह जिस की तरफ झुक जाता है वह पार्टी चुनाव जीत जाती है. दरअसल, ब्राह्मण वोटबैंक की यह राजनीति दिखावा है हकीकत नहीं. उत्तर प्रदेश में जब अगड़ी जातियों की बात होती है तो ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया बिरादरी का नाम आता है. बनिया बिरादरी में कुछ उप जातियां पिछड़ी जातियों के करीब मानी जाती हैं. इन में से 11 उप जातियां तो पिछड़ी जातियों में शामिल भी हो चुकी हैं. मोटेतौर पर देखें तो ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया बिरादरियां अगड़ी जातियों में गिनी जाती हैं. अगर इन जातियों की भागीदारी की बात करें तो सभी जातियों की संख्या करीबकरीब एक जैसी ही है. ये सभी जातियां 8 से 9 फीसदी के बीच ही हैं. बनिया और कायस्थ बिरादरी को अगड़ी जातियों में एक ही वर्ग में माना जाता है.

आबादी में सभी अगड़ी जातियों के बराबर होने के बावजूद ब्राह्मण वोटबैंक बन गया और दूसरी जातियां पीछे छूट गईं. इस का अपना एक खास कारण है. अगड़ी जातियों में ब्राह्मण सब से ज्यादा शिक्षित और मुखर हैं. ऐसे में अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए बड़ी चतुराई से वह वोटबैंक बन कर उभर आई. 

राजनीतिक समीक्षक हनुमान सिंह सुधाकर कहते हैं, ‘‘1990 से पहले जब राजनीति में मंडल कमीशन का उभार नहीं था तब ब्राह्मण कांग्रेस के साथ खड़े थे. इस के पीछे कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का ब्राह्मण बिरादरी से होना माना जा रहा था. मंडल कमीशन आने के बाद जातीय राजनीति में जो बदलाव आया उस ने उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे प्रमुख हिंदी भाषी क्षेत्रों से अगड़ी जातियों को हाशिए पर ला खड़ा किया. भाजपा ने धर्म की राजनीति को शुरू कर के जातीयता को हाशिए पर ढकेलने की कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.

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