ऊंची जातियों की अगुवाई का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अब दूसरे दलों से मुकाबला करने के लिये अपने परंपरागत वोट बैंक से मुंह मोड लिया है. भाजपा की स्थापना के 36 वर्षो में 23 वर्ष ब्राहमण नेता ही उत्तर प्रदेश में पार्टी की कमान संभालते रहे है. कुछ साल ठाकुर और गुप्ता बिरादरी के नेता प्रदेश अध्यक्ष बने. पिछडे वर्ग के नेता बहुत कम समय तक प्रदेश अध्यक्ष रहे.

पार्टी ने कुर्सी से हटते ही उनको हाशिये पर डाल दिया. अब भाजपा ऊंची जातियों को बाय बाय कर पिछडों और दलितों को साधने का गणित लगाकर चुनाव जीतना चाहती है. इस क्रम में केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के दूसरे प्रदेशों में भी ऊंची जातियों को दरकिनार करते पिछडा और दलित समीकरण पर भरोसा किया है. भाजपा ने जातीय समीकरण के साथ हिन्दुत्व की पहचान को ध्यान में रखा है. जिससे वोटर खासकर ऊंचे वर्ग को खुश रखा जा सके. उत्तर प्रदेश से लेकर अरूणाचल तक भाजपा ने इस फार्मूला को अपनाया है.

भाजपा ने उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, तेंलगाना और अरूणाचल प्रदेश में पार्टी के नये प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा की, तो उसमें से एक भी ऊंची जाति का प्रदेश अध्यक्ष नहीं शामिल हो सका. इनमे एक दलित, दो ओबीसी, एक पिछडा (लिंगायतद्ध), और एक अनुसूचित जाति से है. भाजपा ने उत्तर प्रदेश में केशव प्रसाद मौर्या, पंजाब में विजय सांपला, कर्नाटक में बीएस यदुदरप्पा, तेलेगांना में के लक्ष्मण और अरूणाचल प्रदेश में तापिर गांव को पार्टी की कमान सौंप दी है.

इन नये प्रदेश अध्यक्षों में से करीब करीब सभी का राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के साथ काम करने का लंबा अनुभव रहा है. इससे जाहिर है कि भाजपा को नागपुर एजेंडे पर ही चलना है. संघ एक तरफ आरक्षण की समीक्षा और गरीब सवर्णो को आरक्षण दिये जाने की वकालत करता नजर आता है तो दूसरी तरफ ऊंची जातियों को बाय बाय भी कर रहा है.

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