विकास का नारा देते-देते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को सभ्यता के शुरूआती लेन-देन व्यवस्था में ला पटका. हालांकि वे चाहते थे देश में आर्थिक क्रांति लाना, लेकिन हो गया उल्टा. कैशलेस लेन-देन के बजाए देश बार्टर सिस्टम में लौट गया. शहरों की बात तो जाने दें, कम से कम गांव-देहात की यही स्थिति है. आगे बढ़ने के बजाए हमारा गांव-देहात इतिहास की ओर लौटने को मजबूर है, वरना भूखों मर जाएगा.

प. बंगाल के वर्दवान जिले के एक गांव से शाहिदा बीवी कोलकाता आयी हैं. गांव में गुजर करना मुश्किल हो गया है. नकदी की तंगी से खाने के लाले हैं. बेटा परदेश में मजदूरी करता है. बेटी का ब्याह कोलकाता में हुआ है. घर पर अकेली शाहिदा किसी तरह लोकल ट्रेन के किराए के लिए कुछ पैसे का जुगाड़ करके यहां पहुंच गयी. बताती है उसके गांव मजीदा में एक किलो धान दस रु. होता है. बचत के पैसे से 4 किलो 400 ग्रा. धान उसने जमा किया था. अब उसी 4 किलो 400 ग्रा. के बदले दस रु. का मूढ़ी, 12 रु. का चीनी और और दस रु. का मसूर दाल ले आयी थी. इस हिसाब से शशहिदा  के नाम के खाते में 12 रु. जमा थे. अब घर पर खाने को कुछ था नहीं, इसीलिए दूकानदार से सात दिन झगड़ा करके अपने 12 रु. लेकर वह कोलकाता जंवाई के पास चली आयी.

जाहिर है नकदी की कमी से ग्रामीण अर्थव्यवस्था डावांडोल है. बीरभूम के गांव शालजोड़ा में भी गांववालों ने अपने स्तर पर विनिमय व्यवस्था चालू कर लिया है. नोनीबाला, आारती मंडल, बिशु हालदार जैसे लोग इस व्यवस्था के तहत अन्न जुटा पा रहे हैं. लेकिन वह भी कितने दिनों तक हो सकता है - इन्हें खुद भी पता नहीं. हालांकि इस कवायद के पीछे शालजोड़ा के दो बुजुर्ग हैं. बताया जाता है एक लगभग 60 साल का मोदी (किरानावाला) अब्दुल गनी है और दूसरी उम्रदराज एक महिला तहसेना बीवी. ये दोनों गांव में किराना का दूकान चलाते हैं. शालजोड़ा गांव के लोगों के लिए ये बड़ा सहारा है. इसी किराना दूकान के बल पर बंगाल और झारखंड ‍की सीमा में बसे लोगों के लिए दिलासा है. ये दोनों दूकानदार विनिमय व्वयस्था के तहत तो कभी उधारी पर सामान दे देते हैं. इनसे हर परिवार को कुछ-न-कुछ जरूर मिल जाता है. पर जाने कब तक!

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