इन आम चुनावों में कांगे्रस की फजीहत तो हुई ही, बहुजन समाज पार्टी की बड़ी फजीहत हुई और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की हवा काफी निकल गई. छोटे दलों जैसे जनता दल (युनाइटेड), समाजवादी पार्टी, लोक दल, राष्ट्रीय जनता दल आदि की उत्तर भारत में जो पिटाई हुई उस से साफ है कि अब वोट जाति पर नहीं मांगे जा सकते. इन दलों ने आमतौर पर अपना पूरा ध्यान जाति समीकरणों पर बैठा रखा था और उन्होंने शासन की बात की ही नहीं थी.

आम चुनाव यह तय करने के लिए होते हैं कि किन लोगों को दिल्ली में बैठाया जाए ताकि देश की सरकार चल सके. आम चुनावों को जाति जनमत संग्रह समझना गलत है जबकि यह वर्षों चला क्योंकि सब एकसुर में बोल रहे थे. नरेंद्र मोदी की विजय की हुंकार से इन छोटे दलों के जातिगत वोटबैंकों की चूलें हिल गईं और वोटर या तो छितर गए या भाजपा के साथ हो लिए.

जाति की राजनीति करने वाले लोगों को अब राजनीति से अवकाश लेना पड़ेगा क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर पहचान बनाए रखना उन के लिए असंभव सा रहेगा. ममता बनर्जी और जयललिता उत्साही सीटें ले गईं पर अगले चुनावों में उन पर दबाव बना रहेगा और पर्याय सामने दिखते ही उन के भी वोटर भाजपा में जा सकते हैं.

आम चुनाव इस बार कुछ करने वालों के पक्ष में गए हैं चाहे करने में केवल प्रचार ही क्यों न रहा हो. जो प्रचार नहीं कर सकते वे आज की बाजार व्यवस्था में टिक नहीं सकते. लोग अब पैसे के बदले सेवा चाहने लगे हैं और वोट के बदले अच्छे शासन की मांग कर रहे हैं, जो इन छोटे दलों के बस का नहीं रहा है.

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