कल मैं अपने औफिस की रिटायर्ड सहकर्मी अनामिका के घर गई तो बड़ी व्यस्त और कहीं जाने की तैयारी में दिखीं. ड्राइंगरूम में रखे लगेज को देख कर मैं ने पूछा,  ‘‘बड़ी व्यस्त दिख रही हैं, कहीं जाने की तैयारी है, दीदी?’’

‘‘हां, कल हम दोनों बड़े बेटे बब्बू के पास जा रहे हैं. परसों उस का जन्मदिन है न,’’ वे खुशी से बोलीं.

‘‘क्या सब के जन्मदिन पर जाते हैं आप दोनों, रांची से पुणे की दूरी तो बहुत है?’’

‘‘हां, कोशिश तो यही रहती है कि जीवन के प्रत्येक खास दिन पर हमसब साथ हों. आनेजाने से हमारा शरीर तो ऐक्टिव रहता ही है, बच्चों और पोतेपोती का हम से जुड़ाव व लगाव बना रहता है. वे अपने दादादादी को पहचानते हैं और उन की चिंता करते हैं. बच्चों को तो इतनी छुट्टियां नहीं मिल पातीं और हम फ्री हैं, तो हम ही चले जाते हैं. मिलना चाहिए सब को, फिर चाहे कोई भी आए या जाए वे या हम लोग. दूरी का क्या है, बच्चे पहले ही फ्लाइट से रिजर्वेशन करवा देते हैं. कोई परेशानी नहीं होती,’’ अनामिका मुसकराती हुई बोलीं.

भावनात्मक लगाव की कमी

बच्चों के पास उन का जाने का उत्साह देखते ही बन रहा था. जीवन एक सतत प्रक्रिया है जिस में विवाह, बच्चे, उन का बड़ा होना और फिर उन का एक स्वतंत्र व पृथक व्यक्तित्व और अस्तित्व का होना एक प्राकृतिक जीवनचक्र है. जो आज हमारे बच्चे कर रहे हैं वही कल हम ने भी तो किया था. हम सब के जीवन में यह दौर आता ही है जब बच्चे अपना एक अलग नीड़ बना लेते हैं और मातापिता अकेले हो जाते हैं. आज ग्लोबलाइजेशन और मल्टीनैशनल कंपनियों में नौकरी लगने के कारण मातापिता से दूर जाना उन की विवशता भी है और आवश्यकता भी.

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