‘जोरू का गुलाम’ जैसी कहावतों को अकसर लोग मजाक में लेते हैं, क्योकि आमतौर पर पूरी दुनिया में महिलाओं को दोयमदर्जे का समझा जाता है और पुरुष ही घर का मुखिया होता है. मगर आप को यह जान कर हैरानी होगी कि एक खप्ती से ग्रुप ने एक इलाके का नाम दे कर ऐसा तंत्र स्थापित किया है जहां वाकई पुरुष महिलाओं के गुलाम होते हैं.

‘वूमन ओवर मैन’ मोटो वाले इस तथाकथित देश का शासन भी एक महिला के हाथों में ही है. यह देश है ‘अदर वर्ल्ड किंगडम’ जो 1996 में यूरोपियन देश चेक रिपब्लिकन में एक फार्म हाउस में बना. इस देश की रानी पैट्रिसिया प्रथम हैं, पर उन का चेहरा आज तक बाहरी दुनिया ने नहीं देखा है.

इस देश की मूल नागरिक सिर्फ महिलाएं होती हैं और पुरुष महज गुलामों की हैसियत से रहते हैं. यह शगूफे की तरह का देश है पर फिर भी साबित करता है कि दुनिया में ऐसे लोग मौजूद हैं जो औरतों के संपूर्ण शासन में विश्वास रखते हैं.

भारत के मणिपुर की राजधानी इंफाल का  इमा बाजार सब से बड़ा बाजार है. इसे मणिपुर की लाइफलाइन भी कह सकते हैं. इस बाजार की खासीयत यह है कि यहां ज्यादातर दुकानदार भी महिलाएं ही हैं और खरीदार भी.

4 हजार से ज्यादा दुकानों वाले इस बाजार में सागसब्जी, फल, कपड़े, राशन से ले कर हर तरह की चीज मिल जाएगी. यहां किसी भी दुकान पर पुरुषों को काम करने की इजाजत नहीं है.

इमा बाजार की बुनियाद 1786 में पड़ी थी जब मणिपुर के सभी पुरुष चीन और बर्मा की सेनाओं से युद्ध में शामिल होने चले गए और महिलाओं को परिवार संभालने के लिए बाहर आना पड़ा. उन्होंने दुकानें लगा कर धन कमाया. इस तरह जरूरत के हिसाब से सामाजिक व्यवस्था में आया यह बदलाव परंपरा में बदल गया.

खुद रचा समाज

दरअसल, जिस समाज में हम रहते हैं उस की संरचना हम ने ही की होती है. जिंदगी को आसान बनाने, एकरूपता लाने व दूसरी जरूरतों के लिहाज से आवश्यकतानुसार इंसान ने समाज के तौरतरीके व परंपराएं बनाईं. महिलाओंपुरुषों की भूमिकाएं तय की गईं. पुरुष चूंकि शारीरिक रूप से थोड़े ज्यादा शक्तिशाली होते थे, इसलिए उन्हें बाहर की दौड़धूप व धनसंपत्ति जुटाने का जिम्मा सौंपा गया. वहीं महिलाएं चूंकि बच्चों को जन्म देती हैं, इसलिए बच्चों का पालनपोषण और घर संभालने की जिम्मेदारी उन्हें दी गई.

मगर इस का मतलब यह नहीं कि स्त्रीपुरुष के बीच कोई जन्मजात अंतर होता है. वे हर तरह से समान हैं. समाज ही उन के स्वभावगत गुणों व भूमिकाओं से उन्हें अवगत कराता है और वैसी ही भूमिकाएं निभाने की उम्मीद रखता है.

न तो लड़कियां अधिक संवेदनशीलता और बुद्धिकौशल ले कर पैदा होती हैं और न ही लड़के सत्ता व शक्ति ले कर आते हैं. समाज ही बचपन से उन्हें इस प्रकार की सीख देता है कि वे स्त्री या पुरुष के रूप में बड़े होने लगते हैं.

क्यों बंटी भूमिकाएं

इस संदर्भ में पुराने समय की जानीमानी मानवशास्त्री और समाज वैज्ञानिक मागर्े्रट मीड का अध्ययन काफी रोचक है. मीड ने पूरी दुनिया की अलगअलग सामाजिक व्यवस्थाओं की रिसर्च कर पाया कि लगभग सभी समाजों में पुरुषों का ही बोलबाला है और स्त्रीपुरुष की भूमिकाएं भी बंटी हुई हैं.

रिसर्च के बाद मीड को कुछ ऐसी जनजातियां भी दिखीं जहां की सामाजिक व्यवस्था बिलकुल भिन्न थी. 1935 में प्रकाशित उन की किताब ‘सैक्स ऐंड टैंपरामैंट इन थ्री प्रीमिटिव सोसाइटीज’ में ऐसी 3 जनजातियों का विवरण है जहां स्त्रीपुरुष की भूमिकाएं बिलकुल अलग तरह से तय की गई थीं.

मीड ने पाया कि न्यू गुयाना आइलैंड के पहाड़ी इलाकों में रहने वाली अरापेश नामक जनजाति में महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाएं एकसमान थीं. बच्चों के पालनपोषण में दोनों समान रूप से सहयोग करते, मिल कर अनाज का उत्पादन करते, खाना बनाते और कभी भी झगड़ों या विवादों में उलझना पसंद नहीं करते.

इसी तरह एक दूसरी जनजाति मुंडुगुमोर में भी स्त्रीपुरुषों की भूमिकाएं समान थीं. फर्क इतना था कि यहां स्त्रीपुरुष दोनों ही ‘पुरुषोचित’ गुणों से युक्त थे. वे योद्धाओं की तरह व्यवहार करते थे. शक्ति और ओहदा पाने के लिए प्रयासरत रहते थे और बच्चों के पालनपोषण में कोई रूचि नहीं रखते थे.

तीसरी जनजाति जिस का मार्ग्रेट मीड ने उल्लेख किया वह थी न्यू गियाना की चांबरी कम्यूनिटी. यहां स्थिति बिलकुल अलग थी. स्त्रीपुरुषों के बीच अंतर था, मगर पारंपरिक सोच से बिलकुल भिन्न.

पुरुष इमोशनली डिपैंडैंट और कम जिम्मेदार थे. वे खाना बनाने, घर की साफसफाई व बच्चों की देखभाल का काम करते थे जबकि महिलाएं अधिक लौजिकल, इंटैलिजैंट और डौमिनैंट थीं.

जैंडर इक्वैलिटी की अवधारणा

19वीं सदी में इजराइल के ‘किबुट्ज’ नामक समुदाय जैंडर इक्वैलिटी का खूबसूरत उदाहरण प्रस्तुत करते थे. यह दौर था औद्योगिकीकरण से पहले का. यहां के लोग खेती का काम कर अपना जीवननिर्वाह करते. इस समुदाय के पुरुषों को महिलाओं के पारंपरिक काम जैसे खाना बनाना, बच्चों की देखभाल आदि करने को प्रोत्साहित किया जाता. वैसे महिलाएं खुद भी ये काम करती थीं.

इस के साथ ही पुरुषों वाले काम जैसे अनाज का उत्पादन, घरपरिवार की सुरक्षा आदि स्त्रीपुरुष दोनों मिल कर करते थे. वे प्रतिदिन या सप्ताह के हिसाब से अपने काम बदलते रहते ताकि स्त्रीपुरुष दोनों ही हर तरह के कामों में अपना योगदान दे सकें. आज भी इजराइल में 200 से ज्यादा किबुट्ज समुदाय मौजूद हैं, जहां सामाजिक व्यवस्था जैंडर इक्वैलिटी के सिद्धांत पर आधारित है.

देखा जाए तो इस तरह की सामाजिक व्यवस्था ही आदर्श कही जा सकती है. पर हकीकत में ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं. पूरी दुनिया में हमेशा से आलम यही रहा है कि महिलाएं घर संभालें और पुरुष बाहर के काम करें, पैसे कमा कर लाएं. इस से पुरुषों के अंदर वर्चस्व की भावना घर करती रही. महिलाओं को परिवार व समाज में दोयमदर्जा मिला. वे घर की चारदीवारी में कैद होती गईं जबकि पुरुष घर के मुखिया बनते गए.

पिछले कुछ दशकों में स्थिति थोड़ी बदली है. कितनी ही महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने साथसाथ परिवार, देश का नाम रोशन किया. खेलकूद, मैडिकल, इंजीनियरिंग, पर्वतारोहण जैसे क्षेत्र हों या फिर ऐक्टिंग, राइटिंग, सिंगिंग जैसे कला के क्षेत्र हर जगह महिलाओं ने अपना परचम लहराया. मगर इन सब के बावजूद आज भी उन की आगे बढ़ने की राह आसान नहीं.

सामाजिक कार्यकर्त्ता शीतल वर्मा कहती हैं, ‘‘यकीनन स्त्री और पुरुष दोनों जैविक रूप से भिन्न हैं, परंतु सामाजिक भेद हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा पैदा किया जाता है. पुरुषप्रधान समाज में नारी की स्थिति दूसरे दर्जे के नागरिक की रही है और आज भी ऐसा ही है. ऐसा हर देश और हर युग में होता रहा है. नारी ने अपने अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ कर कुछ अधिकार प्राप्त किए हैं, परंतु स्थिति अब भी ज्यादा बेहतर नहीं है. हर स्तर पर महिला का संघर्ष जारी है.

सक्षम महिलाएं भी शोषित

यदि महिला आर्थिक रूप से सक्षम है तब भी उसे कार्यस्थल पर शारीरिक शोषण, अपमान, कटाक्ष आदि का सामना करना पड़ता है. यह बहुत दुखद है कि हमारे समाज में महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार एक परंपरा सी बन गई है.

घर, औफिस या सड़क, कहीं भी स्त्री पुरुषों द्वारा शोषण की शिकार हो सकती है. कमजोर समझ कर प्रताडि़त किए जाने के अवसर कभी भी आ सकते हैं.

इस संदर्भ में शीतल वर्मा कहती हैं, ‘‘महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाना है तो खुद महिलाओं को भी इस दिशा में प्रयास करना होगा और सकारात्मक कदम उठाने होंगे. महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति सजग रहना होगा. उन्हें अपना स्वतंत्र वजूद गढ़ने और उसे कायम रखने के लिए आत्मनिर्भर और स्वावलंबी होना बहुत जरूरी है.’’

सच तो यह है कि समाज में शक्तिशाली ही शक्तिहीनों का शोषण करता है. फिर क्यों न अपने अंदर वह ताकत जगाई जाए कि कोई भी शख्स किसी तरह का अन्याय करने की बात सोच भी न सके.

पुरुष सत्तावादी सामाजिक संरचना का बहिष्कार करते हुए कई महिलाओं ने अपना अलग वजूद कायम कर समाज के आगे उदाहरण पेश किए हैं.

हैदराबाद में वारंगल की डी. ज्योति रेड्डी एक ऐसा ही नाम है. 1989 तक वे रु 5 प्रति दिन पर मजदूरी करती थीं. लेकिन आज वे यूएसए की एक कंपनी की सौफ्टवेयर सौल्यूशंस की सीईओ हैं और करोड़ों के बिजनैस को हैंडल कर रही हैं.

एक ऐसे समाज, जिस में महिलाओं का सदियों से प्रतिकार किया जाता है, वहां से निकल कर एक ऊंचा मुकाम हासिल कर ज्योति रेड्डी ने साबित कर दिया कि रूढि़वादी सामाजिक संरचना से बाहर निकलना कठिन है नामुमकिन नहीं. बस जरूरत है अपनी ताकत को पहचानने की.

बुलंद हौसला है जरूरी

स्त्री या पुरुष होना माने नहीं रखता. सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि पुरुष ही शारीरिक रूप से मजबूत होते हैं और स्त्रियां कमजोर. मगर ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं, जिन्होंने इस मान्यता को गलत साबित किया है.

48 वर्षीय सामान्य कदकाठी की सीमा राव भी ऐसी ही एक शख्सीयत हैं. सैवेंथ डिग्री ब्लैक बैल्ट होल्डर, कौंबेट शूटिंग इंस्ट्रक्टर, फायर फाइटर, स्कूबा डाइवर और रौक क्लाइबिंग में एचएमआई मैडलिस्ट सीमा राव पिछले 20 सालों से भारतीय जवानों को अवेतनिक तौर पर ट्रेनिंग दे रही हैं. वे भारत की एकमात्र महिला कमांडो ट्रेनर हैं.

3 बहनों में सब से छोटी सीमा राव के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्हीं की प्रेरणा से सीमा के मन में अपने देश के लिए कुछ करने की इच्छा जगी. मैडिकल लाइन छोड़ कर वे स्वेच्छा से कमांडो ट्रेनर बनीं. अब तक वे 2 हजार से ज्यादा जवानों को ट्रेंड कर चुकी हैं.

उन्हें अपने पति मेजर दीपक राव का पूरा सहयोग मिलता है. बतौर स्त्री, घरपरिवार और बच्चों के साथ इस तरह के कामों में इन्वौल्व रहना आसान नहीं.

सीमा राव बताती हैं, ‘‘मैं ने और मेरे पति ने आपसी सहमति से यह तय किया कि हम अपनी संतान पैदा नहीं करेंगे. अपने काम के सिलसिले में अकसर हमें बाहर रहना पड़ता है. मैं साल में 8 महीने ट्रैवल करती हूं. ऐसे में सब मैनेज करना आसान नहीं. मेरे पति ने मेरी भावनाओं को मान दिया और इस अनुरूप परिस्थितियां दीं कि मैं बेफिक्र हो कर अपना काम कर सकूं.

‘‘बचपन से ही महिलाओं को यह समझाया जाता है कि उन्हें जिंदगी में शादी करनी है, बच्चे पैदा करने हैं और घर संभालना है. मगर इस का मतलब यह नहीं कि स्त्री दूसरे काम नहीं कर सकती. जब मैं फील्ड में होती हूं तो जवानों की आंखों में यह सवाल नजर आता है कि क्या एक स्त्री हमें ट्रेनिंग दे सकेगी? मगर मेरी आदत है कि कुछ भी सिखाने से पहले वह कार्यवाही मैं स्वयं कर के दिखाती हूं. इस से उन को अपने सवाल का जवाब भी मिल जाता है.’’

शारीरिक रूप से फिट रहने के लिए सीमा राव हफ्ते में 2 बार 5 किलोमीटर तक दौड़ती हैं. 2 बार जिम में जा कर वेट लिफ्टिंग करती हैं, 2-3 बार फाइटिंग, बौक्सिंग, कुश्ती करती हैं. वे अपने से दोगुने वजन और आधी उम्र के पुरुषों के साथ फाइट करती हैं.

अपनी दिनचर्या के बारे में बताते हुए सीमा कहती हैं, ‘‘ट्रेनिंग के दौरान मेरा दिन सुबह 5 बजे से शुरू हो जाता है. 6 से 7 बजे तक पहला सैशन होता है. 9 से 1 बजे तक शूटिंग और शाम 5 बजे से फिर लैक्सर्च, डैमो, वगैरह का दौर शुरू आता है. क्लोज क्वार्टर बैटल वगैरह के सैशन रात 3 बजे तक चलते रहे हैं.’’

सीमा को अब तक कई अवार्ड्स मिल चुके हैं. वे कई किताबें भी लिख चुकी हैं. उन का मानना है कि जिन लड़कियों में में आगे बढ़ने की चाह है, उन्हें पहले स्वयं को मजबूत बनाना होगा औ तय करना होगा कि यह काम करना ही है. फिर उन्हें कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता.

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