एक तरफ जूही चावला फिल्म में पौलिटिकल लीडर का किरदार निभाती हैं तो दूसरी तरफ दावा करती हैं कि उन्हें राजनीति की समझ नहीं है. उन का मानना है कि वे अपने दिल से सोचती हैं, दिमाग से नहीं. हाल ही में उन के फिल्मी सफर सहित कई मुद्दों पर शांतिस्वरूप त्रिपाठी ने उन से बातचीत की.
‘कयामत से कयामत तक’, ‘राजू बन गया जैंटलमैन’, ‘माई ब्रदर निखिल’, ‘आई एम’ सहित 100 से अधिक फिल्मों में अभिनय कर चुकीं जूही चावला पिछले कुछ समय से सिनेमाई परदे पर कम नजर आ रही थीं. हाल ही में वे अनुभव सिन्हा निर्मित और सौमिक सेन निर्देशित फिल्म ‘गुलाब गैंग’ में एक पौलिटिकल लीडर का निगेटिव किरदार निभाते हुए नजर आईं. वे स्टीवन स्पीलबर्ग की हौलीवुड फिल्म में भी अभिनय कर रही हैं. पेश है उन से हुई बातचीत के मुख्य अंश :
अपनी अब तक की कैरियर यात्रा को किस तरह से देखती हैं?
आज मैं आप के साथ होटल सन ऐंड सैंड में बैठ कर बात कर रही हूं. पर मुझे याद आ रहा है कि कभी मैं ने यहीं पर यश चोपड़ा के निर्देशन में फिल्म ‘डर’ की शूटिंग की थी. उस दिन मैं यश चोपड़ा की हीरोइन बन कर बेहद उत्साहित थी क्योंकि वह मेरे सपनों से कहीं बड़ी बात थी.
अंबाला में पैदा हुई. कुछ समय दिल्ली में रही. दिल्ली में मेरी मम्मी होटल ओबेराय में काम किया करती थीं. मेरे पिता इन्कमटैक्स डिपार्टमैंट में काम कर रहे थे. जब मैं 4 साल की थी, मेरी मां को मुंबई के ताज होटल में नौकरी मिल गई. फिर मेरे पिता ने अपना तबादला दिल्ली से मुंबई करा लिया और हम मुंबई आ गए.
जब मैं मुंबई के एच आर कालेज में पढ़ रही थी तो कालेज की मेरी सहेलियां ‘फेमिना मिस इंडिया’ के लिए फौर्म भर रही थीं तो मैं ने भी फौर्म भर दिया था. जबकि मैं पढ़ाकू लड़की मानी जाती थी. जब मैं ने फौर्म भरा था उस वक्त मुझे यह भी नहीं पता था कि किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए, किस तरह से मेकअप किया जाता है. पर मैं ‘मिस इंडिया’ बनी. वहीं से मुझे फिल्मों में काम करने का मौका मिला और मैं फिल्मों से जुड़ गई.
यदि आप के कैरियर पर नजर दौड़ाएं तो लगता है कि आप ने शादी के बाद सोचसमझ कर कुछ अलग ढर्रे की फिल्में करनी शुरू की हैं?
मुझे ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ी. कुछ परिस्थितियां ऐसी पैदा हुईं  कि मुझे अलग तरह का काम मिलता
रहा. जब मैं शादी के बाद मां बनी तो स्वाभाविक था कि मुझे नाचगाने वाले किरदार मिलने नहीं थे. मेरे पास उस तरह की फिल्मों के औफर भी नहीं आ रहे थे. हीरोइन वाले किरदारों के औफर तो कम उम्र के कलाकारों के पास जा रहे थे तो समझ में आ गया कि कुछ अलग तरह का काम करना पड़ेगा.
ऐसे वक्त में मेरे पास जिन फिल्मों के औफर आए उन में से मुझे जो अच्छे लगे, मैं ने वे किए. ऐसे दौर में मैं ने अपनी जानपहचान के कलाकारों के साथ काम किया. मसलन, संजय सूरी के साथ मैं ने ‘झंकार बीट्स’ की. उसी दौरान संजय सूरी मेरे पास फिल्म निर्देशक ओनीर को ले कर आए. ओनीर ने मुझ से कहा कि वे ‘माई ब्रदर निखिल’ जैसी फिल्म बनाना चाहते हैं, उन के पास पैसे नहीं थे, कुछ नहीं था. पर फिल्म की विषयवस्तु और उन के अंदर कुछ करने के जज्बे को देख कर मैं ने काम करने को ले कर हामी भर दी.
आप को नहीं लगता कि यदि आज की तारीख में ‘माई ब्रदर निखिल’ जैसी फिल्में बनतीं तो वे ज्यादा दर्शकों तक पहुंच पातीं?
मैं ऐसा नहीं मानती. वैसे ‘माई ब्रदर निखिल’ आज तक किसी न किसी फिल्म फैस्टिवल वगैरह में दिखाई जाती रही है. पूरी दुनिया में कहीं न कहीं फिल्म का प्रदर्शन हो रहा है क्योंकि इस फिल्म की जो विषयवस्तु है वह बहुत ही उम्दा है. आप भी जानते होंगे कि यह फिल्म एड्स पर आधारित है. इसी वजह से यह फिल्म हमेशा चर्चा में रहती है.
आम चर्चा है कि अब सिनेमा में काफी बदलाव आ चुका है?
मुझे नहीं लगता. मुझे लगता है कि सिनेमा में कोई बदलाव नहीं आया. आज की तारीख में भी साधारण सी फिल्म को भी रिलीज करने के लिए
5-6 करोड़ रुपए चाहिए. और जब संदेशपरक फिल्म हो तो निर्माता इतना खर्च कहां से करेगा? इतना ही नहीं इस तरह की फिल्मों की रिकवरी भी नहीं है. सब से बड़ा सच यही है कि अच्छी फिल्मों की रिलीज करने का स्ट्रगल आज भी है. जब फिल्म अच्छे ढंग से रिलीज नहीं होती है तो उसे कमर्शियल सफलता नहीं मिलती. छोटे बजट और अच्छी फिल्मों को सुबह 9 बजे या रात 10 या 12 बजे का शो ही मिलता है. इस तरह के शो में दर्शक कैसे मिलेंगे?
लोग सोच रहे थे कि मल्टीप्लैक्स के आने के बाद बदलाव आएगा, पर वैसा कुछ नहीं हुआ.
तो छोटे बजट की फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाने का क्या रास्ता हो सकता है?
मुझे लगता है कि अब वह वक्त आ गया है जब विदेशों की तरह हमारे देश में भी मुद्दों पर आधारित, मसलों पर आधारित, शिक्षाप्रद या छोटे बजट की फिल्मों के रिलीज के लिए अलग से सिनेमाहौल नियत किए जाएं.
फिल्म ‘गुलाब गैंग’ में आप सुमित्रा नामक पौलिटीशियन के किरदार में नजर आईं. आप के अनुसार राजनीति क्या है?
मैं हमेशा सुनती आई हूं कि पौलिटिक्स शतरंज के खेल की तरह है. मैं ने सुना कि पौलिटिक्स में एक पौलिटीशियन के लिए जरूरी होता है कि वह करता कुछ है, पर ध्यान उस का कहीं और होता है यानी कि कुल मिला कर टेढ़ामेढ़ा खेल है. इसलिए मेरा मानना है कि फिल्म ‘गुलाब गैंग’ का मेरा सुमित्रा का किरदार पूरी तरह से वास्तविक नहीं है. इस में कमर्शियल तत्त्व भी जोड़े गए हैं.
आप के अनुसार सुमित्रा और हमारे देश के रियल पौलिटीशियन में कितनी समानता है?
इस बारे में मैं कोई दावा नहीं कर सकती. यह बात दर्शक बता सकते हैं. पर सुमित्रा भी पौलिटीशियन है, तो पौलिटीशियन से कुछ तो समानता होगी. जहां तक सुमित्रा के मेकअप व पहनावे का सवाल है, तो मैं ने सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज व ममता बनर्जी से कुछ चीजें ली हैं. यानी कि वे साड़ी कैसे पहनती हैं, कैसे बाल बनाती हैं आदि. शायद, इन पौलिटीशियनों के पास मेकअप वगैरह करने के लिए समय नहीं होता है. इन का ध्यान कहीं और ही होता है. हमारी फिल्म ‘गुलाब गैंग’ पूरी तरह से एक कमर्शियल फिल्म है. पर कुछ चीजें रीयल लाइफ से ली गई हैं.
पर आप को नहीं लगता कि इन दिनों नारी शिक्षा को ले कर बहुत कुछ किया जा रहा है?
मेरा मानना है कि सदियों से जो चीजें चली आ रही हैं उन्हें बदलने में वक्त लगेगा. एक दिन में बदलाव नहीं आता. पर आप ने देखा होगा कि जिस तरह से लड़कियों को शिक्षा मिल रही है उसी तरह से वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ कर काम कर रही हैं. आज की तारीख में नारियों के खिलाफ अपराध बढ़े हैं या उन्हें ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है? सच कहूं तो मुझे नहीं पता कि हकीकत क्या है.
आप के अनुसार देश की सब से बड़ी समस्या क्या है?
हमारे देश की सब से बड़ी समस्या करप्शन है, जोकि नीचे से ऊपर तक है. यह तो हम सभी के खून का हिस्सा हो गया है. भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हर स्तर पर काम किया जाए. सिर्फ किसी को दोष देने से कुछ नहीं होगा.
माधुरी दीक्षित के साथ लंबे समय के बाद काम किया. क्या आप दोनों के बीच कोई अनबन थी?
हमारे बीच भला किस बात को ले कर अनबन होगी? अब हम लोग एकदूसरे की प्रतिस्पर्धा में नहीं हैं. 90 का दशक होता तो शायद हमारे बीच अनबन होती.
माधुरी दीक्षित फिल्मों में अभिनय करने के अलावा कई दूसरे काम कर रही हैं. आप ऐसा कुछ नहीं करना चाहतीं?
मैं उन से बहुत अलग हूं. मैं उन की तरह महत्त्वाकांक्षी नहीं हूं. मगर मेरा पैशन संगीत है. मैं ने संगीत सीखा है. मैं पूरे विश्व में मोबाइल टावर के रेडिएशन के खिलाफ आवाज उठा रही हूं. लोगों में रेडिएशन को ले कर जागरूकता पैदा कर रही हूं.
आप स्टीवन स्पीलबर्ग के साथ हौलीवुड फिल्म ‘द हंड्रैड फुट जर्नी’ कर रही हैं?
जी हां, इस फिल्म में मैं ओमपुरी की पत्नी का किरदार निभा रही हूं. यह एक कैमियो रोल है. फिल्म का विषय बहुत अच्छा है. फिल्म की कहानी भारत से शुरू हो कर फ्रांस तक जाती है.
शाहरुख खान के साथ कभी आप की बहुत अच्छी दोस्ती हुआ करती थी, पर अब वह टूट चुकी है?
माफ कीजिए, इस तरह की दोस्ती कभी नहीं टूटती. हम दोनों अपनेअपने कामों में व्यस्त हैं. इसलिए मुलाकातें नहीं हो पातीं. पर जब भी मुझे किसी चीज की जरूरत होगी, तो एक फोन पर शाहरुख खान मेरा साथ देंगे. द्य

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