बेशक इसे अभी शुरुआत कहेंगे, पर गोवा में ब्रिक्स सम्मेलन से इतर नेपाल, भारत और चीन के बीच त्रिपक्षीय सहयोग को लेकर बनी सहमति एक सकारात्मक विकास है. वर्षों से कई नेपाली राजनेता व विश्लेषक इसे दोहराते रहे हैं कि नेपाल को अपनी भू-रणनीतिक परिस्थिति का फायदा उठाना चाहिए और भारत व चीन के बीच ‘सेतु’ के रूप में काम करना चाहिए. मगर अब तक इस दिशा में बहुत मामूली काम ही हो सका है, खासकर चीन तक परिवहन के विस्तार और इन दोनों बड़े उत्पादकों व बाजारों के बीच एक हब के रूप में नेपाल के विकास के मामले में.

दरअसल, चीजें तब से बदलनी शुरू हुईं, जब पिछले वर्ष नेपाल के दक्षिणी हिस्से में नाकेबंदी की गई. नाकेबंदी के दुष्परिणाम को टालने के लिए नेपाल सरकार ने चीन से सामानों का आयात करने का प्रयास किया. हालांकि जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि नेपाल से चीन को जोड़ने वाली सड़क इतनी बदहाल है कि उससे बड़ी मात्रा में ढुलाई नहीं हो सकती.

नतीजतन, चीन से यह गुजारिश की गई कि वह परिवहन को बेहतर बनाने में मदद करे, खासकर काठमांडू व सीमावर्ती रसुवागढ़ी के बीच रेलमार्ग बनाने में. इसका चीन ने स्वागत किया था. वाकई, अगर यह परियोजना पूरी होती है, तो बाहरी दुनिया से नेपाल को जुड़ने में बड़ी मदद मिलेगी. मगर नाकेबंदी खत्म होते ही नेपाली राजनेता इस परियोजना को लेकर अपेक्षाकृत ढीले हो गए. और सरकार बदलते ही, ऐसा दिखा कि चीन से संबंध बढ़ाकर नेपाल भारत को नाराज नहीं करना चाहता.

हालांकि इसकी कोई वजह समझ में नहीं आती कि यह परियोजना भारत को कैसे नाराज कर सकती है. यह रेल लाइन तो नेपाल के आर्थिक विकास में खासा योगदान देगी, और भारत भी नेपाल की समृद्धि चाहता है. लिहाजा जरूरी यही है कि इसके लिए भारत को विश्वास में लिया जाए. उसे यह भरोसा देना होगा कि यह रेलमार्ग उसकी सुरक्षा पर चोट नहीं पहुंचाएगी. देखा जाए, तो आने वाले वर्षों में चीन और भारत, दोनों से नेपाल का वास्ता गहराने वाला है. इन दोनों से नेपाल की विदेशी नीति व्यापक रूप से जुड़ी होगी. इसीलिए सभी दलों को इस मसले पर आम सहमति बनानी चाहिए.

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