म्यांमार में आखिरकार लोकतंत्र की जीत हुई. 54 सालों के फौजी शासन का अंत हुआ. 1 फरवरी, 2016 का दिन म्यांमार के लिए ऐतिहासिक बन गया. इस दिन लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव में जीत के 3 महीनों के बाद आंग सान सू की और उन के सांसदों ने संसद में कदम रखा. आंग सू की का राजनीतिक जीवन बड़ा कठिन रहा है. छुटपन में पिता की हत्या ने उन में संघर्ष का मद्दा पैदा किया.

विश्व इतिहास में राजनीतिक बंदियों का अगर नाम लेने को कहा जाए तो इन में से एक नेलसन मंडेला का और दूसरा नाम आंग सू की का होगा. मंडेला की तरह आंग सू की को जेल के कठिन दौर से नहीं गुजरना पड़ा. देशवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. अपने परिवार, अपनी पार्टी और समर्थकों से लंबे समय तक दूर रह कर निरंकुश जूंटा सरकार की नजरबंदी में रहना पड़ा. ऐसी नजरबंदी में अच्छेअच्छे राजनीतिज्ञ टूट जाते हैं, लेकिन आंग सू की अपने इरादों में अडिग बनी रहीं.

संघर्ष का लंबा दौर

आंग सू की का जन्म 19 जून, 1945 को म्यांमार (तत्कालीन बर्मा) की राजधानी इयांगन (तत्कालीन रंगून) में हुआ. उस समय आंग सू की के पिता आंग सन म्यांमार के मेजर जनरल हुआ करते थे. ब्रिटिश उपनिवेश के शासकों के साथ एक समझौते के तहत आंग सन ने 2 साल बाद बर्मा को आजाद कराने का बंदोबस्त किया. उन्होंने बर्मा आजाद फौज बनाई. लेकिन देश की आजादी के 6 महीने पहले सेनावाहिनी में उन के विरोधी जनरल ने उन की हत्या करवा दी. तब आंग सू की महज 1 महीने की थीं. उन की मां खिन पति की सीट से चुनाव जीत कर आजादी के बाद पहली सरकार में शामिल हुईं.

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