भारत ने न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानि एनएसजी की सदस्यता को अपनी नाक का सवाल बना लिया था. केन्द्र सरकार को यह लग रहा था कि भारत के एनएसजी में शामिल होने से उसकी ताकत केवल दुनिया भर में ही नहीं बढ़ेगी, बल्कि देश के अंदर भी सरकार के पक्ष में माहौल बन सकेगा. केन्द्र सरकार ने इसी कारण अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. मनोविज्ञान कहता है कि जिस काम के करने में जितनी ताकत लगती है, उसके ना होने पर निराशा भी उतनी ही ज्यादा होती है.

केन्द्र सरकार को निराश होने के बजाय अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना चाहिये. भारत को अपनी आर्थिक और राजनायिक क्षमता बढाने की दिशा में काम करना चाहिये. जिससे उसे इस तरह के विरोध का भविष्य में सामना ही न करना पडे. एनएसजी के मुद्दे पर भारत में एक पक्ष केवल चीन को ही दोषी मान रहा है. समझने वाली बात यह है कि चीन के साथ ही साथ आयरलैंड, न्यूजीलैंड, तुर्की, ब्राजील और स्विटजरलैंड जैसे देश भी भारत के विरोध में खडे हो गये. इस रणनीति के पीछे चीन सबसे बडी ताकत हो सकती है. पर विरोध करने वालों में वह अकेला देश नहीं है.

निश्चित तौर पर भारत की रणनीति में बडी चूक मानी जा सकती है. एनएसजी के सभी फैसले सर्वसम्मति से लिये जाते हैं. एक भी देश के विरोध को दरकिनार नहीं किया जाता है. यह बात केन्द्र सरकार को पता थी इसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित मंत्रिमंडल के दूसरे मंत्री और असफर इस प्रयास में लगे रहे कि भारत को हर हाल में एनएसजी की सदस्यता मिल जाये.

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