पंद्रह वर्ष पहले 9/11 हमले के बाद अमेरिका का उद्देश्य था, बड़े पैमाने पर क्रूरता फैलाने वाले आतंकी संगठन अल-कायदा को नेस्तानाबूद करना और भविष्य में ऐसे हमलों को रोकना. साल 2011 में अल-कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को ढूंढ़कर मार गिराया गया, मगर जिस जहरीली विचारधारा का वह नुमाइंदा था, वह पूरी दुनिया में नए रूप में फैल चुकी है. अब नई पीढ़ी के आतंकी और आतंकवादी संगठन जन्म ले रहे हैं. इनमें आईएस जैसा क्रूर व बर्बर संगठन भी है.

9/11 के समय भी, जब पूरा अमेरिका बदले की आग में जल रहा था, कई लोगों का मानना था कि ओसामा बिन लादेन को मार गिराना और अल-कायदा की मददगार अफगानिस्तान की तालिबानी हुकूमत को सत्ता से उखाड़ फेंकना समस्या का हल नहीं है. धर्म की ओट में कट्टर विचारधारा का प्रसार और पश्चिमी-विस्तार व वर्चस्व से जुड़ी शिकायतें इस समस्या के मूल में हैं. उस वक्त भी यह कहा गया था कि इस विचारधारा को महज पुलिस और सैनिकों के बूते पश्चिम खत्म नहीं कर सकता.

इसके अंत की राह इस्लाम और इस्लामिक मुल्कों की संस्कृति के भीतर से निकलेगी, जब उदार व प्रगतिशील ताकतें वहां मजबूत होंगी. सीरिया और इराक में आईएस का उदय और दुनिया भर में कहीं भी किसी के द्वारा आतंकी हमला करने की बढ़ती प्रवृत्ति बताती है कि अमेरिका के प्रयास सफल नहीं हुए हैं. यहां तक कि आईएस के खिलाफ सैन्य अभियानों में मिली सफलता भी आश्वस्त नहीं करती कि अब उस विचारधारा का अंत हो जाएगा, जो आतंकवाद की नींव है.

लिहाजा 9/11 के इस 16वें वर्ष में बेशक इराक और अफगानिस्तान में युद्ध अब अंत होने को है, मगर दुनिया उस सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं है, जिसकी कल्पना ओसामा को घेरने और तालिबानी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के अभियान के साथ की गई थी. कहना अतिशयोक्ति नहीं कि पर्ल हार्बर और अब्राहम लिंकन, जॉन एफ केनेडी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या की तरह 9/11 हमले के दाग भी वक्त बीतने के साथ बेशक धुंधले हो जाएं, मगर वे कभी खत्म नहीं होंगे और हमारा दर्द बना रहेगा.

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