लड़की का पिता चहका, ‘‘जनाब, मैं ने सारी उम्र रिश्वत नहीं ली. ऐसा नहीं कि मिली नहीं. मैं चाहता तो ठेकेदार मेरे घर में नोटों के बंडल फेंक जाते कि गिनतेगिनते रात निकल जाए. मगर नहीं ली, बस. सिद्धांत ही ऐसे थे अपने और जो संस्कार मांबाप से मिलते हैं, वे कभी नहीं छूटते.’’ यह कह कर उस ने सब को ऐसे देखा मानो वे लोग उसे अब पद्मश्री पुरस्कार दे ही देंगे. मगर इस बेकार की बात में किसी ने हामी नहीं भरी. लड़के की मां को यह बेकार का खटराग जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. हर बात में सिद्धांतों का रोड़ा फिट करना कहां की शराफत है भला. लड़की के बाप की बेमतलब की शेखी उसे अच्छी नहीं लगी. वह बोली, ‘‘भाईसाहब, ऐसा कर के आप अपना अगला जन्म सुधार रहे हैं मगर हमें तो इस जन्म की चिंता सताती है. बच्चों के भविष्य की फिक्र है. समाज में एकदूसरे के हिसाब से चलना ही पड़ता है. बच्चे भले हमारे एक या दो हैं मगर एक सिंपल सी शादी में आजकल 50 लाख रुपए का खर्च तो आ ही जाता है. सोना, ब्रैंडेड कपड़े, एसी बैंक्वेट हौल, 2 हजार रुपए प्रति व्यक्ति खाने की प्लेट. कुछ न पूछो. अब तो शादी में लड़के वालों के भी पसीने छूट जाते हैं.’’

लड़की की मां हर बात टालने में माहिर थी. लेनदेन की बात को खुल कर उभरने नहीं दे रही थी. उस का तर्क भी अपनी जगह सही था. मेहनत की कमाई से पेट काटकाट कर उन्होंने अपनी लड़की को डाक्टर बनाया था और अब उस के बराबर का दूल्हा ढूंढ़ने में उन्हें बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ रहा था. इस बार फिर उस ने पैंतरा बदला, ‘‘लेनदेन की बातें तो होती रहेंगी, पहले लड़का और लड़की एकदूसरे को पसंद तो कर लें.’’ लड़के का पिता काफी चुस्त और मुंह पर बात करने वाला चालाक लोमड़ था. अपनेआप को कब तक रोके रखता. 2 घंटे हो गए थे लड़की वालों के घर बैठे. लड़के ने सिगनल दे दिया था कि उसे लड़की जंच रही है. अब उस की बोली शुरू की जा सकती है. मगर इन लोगों ने आदर्शों की ढोंगपिटारी खोल ली थी. बेकार में समय बरबाद हो रहा था. कई जगह और भी बात अटकी हुई है. लड़कियां तो सब जगह एकजैसी ही होती हैं. असली चीज है नकदनामा. औफिस में लड़के के बाप ने बिना लिए अपने कुलीग तक का काम नहीं किया था कभी. तभी तो इतनी लंबीचौड़ी जायदाद बना ली. बड़ीबड़ी 3 कारें हैं. और पैसे की भूख फिर भी बढ़ती ही जा रही थी.

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