आप भी क्या सोचेंगे, यह मुंह और मसूर की दाल. छोटा मुंह और बड़ी बात. लेकिन यह तो मन है, किस के काबू में आता है. इस में तो रोज नईनई तमन्नाएं उत्पन्न होती रहती हैं. दूसरों की प्रगति हमें बरदाश्त नहीं होती. मेरे एक अतरंग मित्र और सहपाठी हैं, मि. जे आर सफल अर्थात जुगाड़ राम सफल. यथा नाम तथा गुण. अपने नाम को चरितार्थ करते हुए जुगाड़ बैठाने की कला में हमेशा सफल रहते हैं. सरकारी सेवा में उच्च अधिकारी हैं. हमारी दोस्ती तो बस कृष्णसुदामा की तरह ही है. उन से मेरी बराबरी ही कहां है. सफल साहब कुछ समय पूर्व सरकारी सेवा में एपीओ हुए थे. एपीओ बोले

तो अवेटिंग पोस्टिंग और्डर. इस ‘अतिसुखप्रदायी’ प्रावधान में उन के ठाटबाट देखते ही बनते हैं. क्या आनंदमंगल हो रहा है, आजकल. उन के बढ़े हुए ठाठ और रुतबे से मुझे ईर्ष्या होने लगी है. उन्हें देख कर मेरे दिल में भी कुछकुछ होने लगता है. दिल करता है, डरता हूं, हमारे मित्र तो बड़े अफसर हैं, मैं ठहरा अदना सा कर्मचारी. कैसे उन से समानता कर सकता हूं? लेकिन दिल की महत्त्वाकांक्षा है कि कंट्रोल ही नहीं हो रही जैसे कोई करारी नमकीन खा ली हो.

आप सोच रहे होंगे मेरा दिमाग ही फिर गया है. कौन होगा जो सरकारी सेवा में एपीओ होना चाहेगा. लेकिन गहराई से बात को समझिए. मैं बेवकूफी की बात नहीं कर रहा. जमाने की बदली हुई सोच के अनुसार, अब मैं भी ‘अल्ट्रा मौडर्न’ बन जाना चाहता हूं. लाभ हथियाने में पीछे रह कर मुझे क्या बैकवर्ड का तमगा हासिल करना है. बड़े रहस्य की बात है मित्रो, आज के जमाने में एपीओ हो जाना किसी पुरस्कार या सम्मान से कम बात नहीं है. यह सम्मान तो एप्रोचफुल, सौर्सफुल जुगाड़ुओं को ही नसीब हो पाता है. मेरी यह धारणा एक नहीं बल्कि दर्जनों केसहिस्ट्री रीड करने के बाद बनी है, तब मैं उस की प्रैक्टिकल वैल्यू को समझ पाया हूं.

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