हमारे मुल्क के नेता सियासत के नाम पर जनसेवा के बजाय महिलाओं पर अश्लील और बेतुकी फब्तियां कसने से बाज नहीं आते. कभी किसी के गालों पर तो कभी महिला के कपड़ों या लिपस्टिक पर टिप्पणी कर ये महिलाओं के प्रति अपनी संवेदनहीनता दर्शाते रहते हैं. बाद में माफीनामे की नौटंकी करते इन नेताओं की जबान आखिर बारबार क्यों फिसलती है?
रानी पत्नी में मजा नहीं’’ :
 श्रीप्रकाश जायसवाल.
 ‘‘बचपन में ही शादी करा दें’’ : ओमप्रकाश चौटाला, पूर्व मुख्यमंत्री, हरियाणा.
‘‘हेमा के गाल जैसी सड़क बनवाएंगे’’: लालू प्रसाद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री, बिहार.
‘‘डेंटेडपेंटेड औरतें करती हैं प्रोटैस्ट’’: राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सांसद पुत्र अभिजीत मुखर्जी.
‘‘परकटी महिलाएं’’ : महिला आरक्षण पर जद (यू) के अध्यक्ष शरद यादव.
‘‘यह फिल्मी टौपिक नहीं है’’ : गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का जया बच्चन पर कटाक्ष.
‘‘राखी और केजरीवाल दोनों ऐक्सपोज करते हैं’’ : कांगे्रस महासचिव दिग्विजय सिंह.
‘‘लिपस्टिक लगा कर निकलती है औरत’’ : मुख्तार अब्बास नकवी,भाजपा नेता.
‘‘टीवी पर ठुमके लगाने वाली चार दिन के अंदर राजनीतिक ऐक्सपर्ट बनने की कोशिश कर रही है’’ : कांगे्रसी नेता संजय निरुपम ने बीजेपी नेता स्मृति ईरानी पर यह टिप्पणी की.
 महिलाओं के बारे में ये बयान उन नेताओं के हैं जो देश को चला रहे हैं और कानून बनाने की प्रक्रिया में वे खुद एक हिस्सा हैं. कुछ नेताओं को उन के इन कथनों के परिणामस्वरूप हंगामा मचने पर माफी मांगनी पड़ी और कुछ ढीठता से अपने कथनों का दूसरा मतलब निकालते हुए उस पर अडिग रहे. जब हमारे नेता ही ऐसी विचारधारा रखते हैं तब वे महिलाओं को मुख्यधारा से कैसे जोड़ेंगे. यही कारण है कि आज महिलाएं देश के विकास में पूर्णरूप से नजर नहीं आती हैं.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो.’’ परंतु हमारे नेता बुरा बोलो, सुनो और देखो को ही मंत्र मान कर देश को चला रहे हैं. वे किसी पर कभी भी कोई भी फब्ती कसने से बाज नहीं आते. देश में स्त्री को जननी का दरजा दिया गया है लेकिन सियासत में स्त्री का रुतबा बहुत ही गौण है. पढ़ने या जौब करने को घर से बाहर जाने वाली महिलाओं के चरित्र को ले कर ऐसे लोग अकसर प्रश्न उठाते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि उन्हें यह हक नहीं है.
नेता जब वोट मांगने जाते हैं तब वे सिर्फ पुरुषों से वोट नहीं मांगते. उन की जीत में सभी का योगदान होता है. एक नेता का दूसरे नेता से वैचारिक मतभेद हो सकता है लेकिन दूसरे नेताओं पर इस तरह की फब्तियां, वह भी महिला नेताओं पर कसना बहुत ही शर्म की बात है. इस तरह की बेहूदा बातें बोल कर भी क्या उन्हें अपनी कुरसी पर बने रहने का अधिकार है? उन पर कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की जाती? उन्हें दिमागी तौर से बीमार क्यों नहीं कहा जाता? वे देश की गंभीर समस्याओं से कैसे निबटेंगे जब उन का अपनी जबान पर ही कंट्रोल नहीं है. आज ज्यादातर नेताओं पर आपराधिक मामलों में शामिल होने के संदेह के केस चल रहे हैं. इस के बावजूद वे बड़े गौरव से देश के सम्मानित तिरंगे को फहराते नजर आते हैं.
आजादी के समय के हमारे नेता वास्तविक हीरो थे. वे सभी जमीन से जुड़े थे. उन की काबिलीयत उन के व्यक्तित्व में नजर आती थी. वे कभी भी ऐसी फब्तियों के कारण विवादों में नहीं रहे. आज 80 वर्ष के नेता भी अश्लीलता के आरोपों में फंसे हैं. क्यों? एक ब्यूरोक्रेट अगर ऐसा करे तो उसे नौकरी से हटाए जाने तक की भी सजा है तो फिर इन पर ऐसा ऐक्शन क्यों नहीं? श्रीप्रकाश जायसवाल, केंद्रीय मंत्री हो कर, बड़ी ही बेशर्मी से कहते हैं कि पुरानी पत्नी में मजा नहीं. तो साहब, अब पुराने पति के बारे में भी अपनी राय बता दीजिए. किसी को औरत की लिपस्टिक से एतराज है लेकिन अपने बाल रंगने से नहीं. उपमाओं की संख्या कम पड़ गई तो हेमा के गाल जैसी सड़क बनाने को कह डाला. श्रीमानजी, हेमा एक महिला है, क्या यह आप को याद दिलाने की जरूरत है? इन सांसदों को जैंडर के बारे में जागरूक करने की जरूरत है.
शिक्षा के लिए राजनेताओं पर कोई दबाव नहीं है. वे खुद चाहे 8वीं, 9वीं या 10वीं पास हों पर वे एक आईएएस अधिकारी को निलंबित कर सकते हैं. यह शिक्षा और शिक्षित व्यक्ति दोनों के साथ मजाक नहीं तो और क्या है. एक नौकरीपेशा व्यक्ति से जब अपेक्षा की जाती है कि वह नईनई टे्रनिंग ले कर अपने को इस काबिल बनाए कि वह अपनी नौकरी का उत्तरदायित्व भलीभांति पूरा कर सके तो राजनेताओं पर शिकंजा क्यों नहीं. हरियाणा के पूर्व राज्यमंत्री गोपाल कांडा, जो आजकल जेल में हैं, पर गीतिका (23 साल की एयर होस्टैस) को खुदकुशी करने को उकसाने के लिए और उस का यौन उत्पीड़न के आरोप तो सामने हैं जो परदे के पीछे हैं वे सब माफ हैं.
चुनाव से पहले की हलचल शुरू हो गई है. सब दौड़ में प्रथम आने की होड़ में लगे हैं. ऐसे में यह सोचने की जरूरत है कि क्या समाज में रहने और उसे चलाने के लिए हमारे नेताओं को किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है. उन्हें जैंडर संवेदनशीलता पर जागरूक करने की जरूरत है, उन के विवेक को जगाने की जरूरत है ताकि वे सही और गलत का मतलब समझ सकें. उन्हें अपने नैतिक कर्तव्यों का बोध होना चाहिए और नैतिक कर्तव्यों के प्रति जागरूकता उन की खुद की अंतरात्मा उन्हें दे सकती है.
?नेता समाज को, देश को चलाते हैं. उन में स्त्रीजाति के प्रति संवेदना हो तभी वे संसद में बैठ कर कानून बनाने के अधिकारी हैं. आज समय बदल गया है. देश का युवावर्ग इन नेताओं से कुछ अपेक्षा रखता है. अगर वे उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास नहीं करेंगे तो उन्हें ठुकरा दिया जाएगा. इस का सुबूत हम हाल में हुए कुछ आंदोलनों में देख भी चुके हैं.
एक स्वस्थ भारत में पुरुष और महिला दोनों बढ़चढ़ कर भाग लेंगे तभी सही माने में बदलाव आएगा. वरना हम आजादी के इतने वर्षों बाद भी कूपमंडूक बने रहेंगे. इसलिए सांसदों को अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा और अपनी संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठ कर बात करनी होगी. इस के लिए 1 या 2 टे्रनिंग नहीं बल्कि जनता यानी देशवासी लगातार इस तरह के कदम उठाएं कि नेता लोग व्यवहार बदलने को मजबूर हो जाएं.

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