मैं हैरान हूं. हर तरफ ऋषियों की बाढ़ आई हुई है. परसों जिस दुकान पर परचून का सामान खरीदने के लिए गया, उस दुकान के मालिक ने अपना बड़ा सा फोटो दुकान के बाहर लटका कर उस के नीचे श्रीश्री 1008 परचून ऋषि लिखवा लिया है. अब जब डंडी मार कर कम तोलने वाला और उधार के पैसों पर मनमाने तरीके से ब्याज वसूलने वाला आदमी अपनेआप को ऋषि घोषित कर सकता है, तो फिर महर्षियों, देवर्षियों, राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों की तो कल्पना कर के ही मन कांप उठता है. वह तो अच्छा हुआ कि कलियुग ने ऋषियों से श्र्राप देने की शक्ति छीन ली, वरना ये तो पता नहीं किनकिन अबलाओं पर अपनी इच्छाएं थोपते और मनमानी नहीं कर पाने पर उन्हें पत्थर की शिला में परिवर्तित कर देते.

सड़क पर चलते हुए कई बार लगता है कि भारत एक ऋषि प्रधान देश है. भ्रष्ट अफसरों, सत्ता के दलालों, संस्कृति के सौदागरों, पुरस्कारलोलुप लेखकों, उकताए हुए अध्यापकों से ले कर शहर की सड़कों पर आतीजाती महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वाले लुच्चेलफंगों  तक के दिल में अपनी साधना के प्रति इतना समर्पण है कि ऋषिपना स्वयं आ कर उन से अनुमति मांगता प्रतीत होता है कि साहब, क्या मैं आप के व्यक्तित्व का वरण कर के खुद को धन्य कर लूं?

चौराहे पर खड़े ट्रैफिक पुलिस वाले को देखिए. लोग गलत तरीके से एकदूसरे को ओवरटेक कर रहे हों या खतरनाक तेजी से अपनी बाइक दौड़ा रहे हों, उसे फर्क नहीं पड़ता. ड्यूटी पर आते ही वह ध्यान में चला जाता है. कभीकभी किसी मेनका की सड़क पर उपस्थिति उस का ध्यान भंग भी करती है तो सिर्फ इसलिए कि वह जानता है कि वह ऋषि हो चुका है और हमारी संस्कृति में ऋषि होने के लिए अप्सराओं की उपस्थिति से विचलित होना आवश्यक माना जाता है.

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