भैंस हैरान थी, लेकिन सही बात तो यह है कि उस के मन में लड्डू भी फूट रहे थे. हैरानी की बात यह थी कि उसे साक्ष्य के लिए अदालत ने बुलाया था और लड्डू इसलिए फूट रहे थे कि बरसों बाद उसे ऐसी जगह जाने का मौका मिला था, जहां जाना उस के लिए अभी तक वर्जित माना जाता था. भैंसों की तो पता नहीं, लेकिन इंसानों में जब किसी को ऐसा मौका मिलता है, तो उस के अपने करीबी लोग ही टांगखिंचाई करने लगते हैं. ‘शुक्र है कि भैंसियत को अब तक इंसानियत का रोग नहीं लगा,’ भैंस ने मन ही मन सोचा.

लेकिन यह स्वाभाविक इच्छा तो सभी प्राणियों के मन में होती है कि उन की अभूतपूर्व उपलब्धि को दूसरे प्राणी भी जानें. आदमी तो अपनीअपनी छोटीछोटी उपलब्धियों को जताने या बताने के लिए बड़ेबड़े होर्डिंग्स लगवा लेता है, अपने ही खर्चे पर अपना ही सम्मान समारोह आयोजित करवा लेता है, 100-150 पिछलग्गुओं को इकट्ठा कर के जुलूस निकलवा लेता है, जिस में बेसुरे गानों पर बेहूदा लोग बेढंगा नाच नाचते चलते हैं. जिंदाबादमुर्दाबाद होता रहता है. मगर बेचारी भैंस के पास ये सब विकल्प कहां? हिंदी के कुछ मुहावरों ने उसे इतना बदनाम कर दिया है कि अब कोई उस के आगे बीन तक नहीं बजाना चाहता. ‘भैंस के आगे बीन बाजे भैंस पड़े पगुराए.’

भैंस को अचानक लगने लगा कि उस का स्टेटस सचमुच बहुत बढ़ गया है. इस देश में जब कोई आदमी अपनेआप को आम आदमी से अलग समझने लगता है, तो सब से पहले उस के मन में हिंदी भाषा के प्रति चिढ़ का भाव पैदा होता है और अभीअभी एक मुहावरे के बारे में सोचते हुए भैंस ने हिंदी के व्याकरण को कोसा है. भैंस अपनेआप पर ही इतराई. जाती रहे किसी दूसरे की भैंस पानी में, जाए तो उस की बला से, उस ने कौन सा सारे जमाने का ठेका ले रखा है? इस विचार के साथ ही भैंस के मन में आभिजात्य होने का एक और लक्षण प्रकट हुआ.

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