भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रथम एशियाई खेलों के दौरान कहा था कि खेल को खेल की भावना से खेला जाना चाहिए पर वक्त के साथसाथ खेल भी बदल गए और भावनाएं गायब हो गईं. अब न तो खिलाडि़यों को पहचानने वाले लोग रहे और न ही खेल को आगे बढ़ाने वाले. खेलों में राजनीति और भ्रष्टाचार हावी हो गया. विडंबना यह है कि राजनीति करने वाले लोग कहते फिरते हैं कि खेल को राजनीति से दूर रखना चाहिए और खुद ही कुरसी छोड़ने को तैयार नहीं. इन्हें खेल से कोई लेनादेना नहीं होता. इन की प्राथमिकता होती है राजनीति करना. इन्हें खेलों के जरिए पब्लिसिटी, पावर और पैसा चाहिए. खेलों का आधार कितना मजबूत हुआ, खेलों की सुविधाओं में इजाफा हुआ कि नहीं, इन्हें इस से दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं. बीसीसीआई में यही तो हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने बीसीसीआई में पारदर्शिता और खेल में सुधार लाने के लिए लोढ़ा समिति की रिपोर्ट को मानते हुए अमल में लाने का निर्देश दे रखा है लेकिन पदाधिकारी इस निर्देश का पालन करने के बजाय अदालत में पुनर्विचार के लिए अर्जी लगा रहे हैं. कितनी शर्म की बात है. ये लोग नहीं चाहते हैं कि खेल सुधरे. इन्हें बस पैसा और पावर चाहिए.

यूपीए सरकार के समय जब अजय माकन खेल मंत्री थे तब उन्होंने खेल संघों को सुधारने की दिशा में कुछ कदम उठाए थे लेकिन उस दौरान अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर, राजीव शुक्ला, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे लोग एक हो गए और अजय माकन को झुकना पड़ा. ऐसे में खेल की क्या हालत है, यह रियो ओलिंपिक में दिख चुका है. महज 2 मैडलों में रजत और कांस्य से भारत को संतुष्ट होना पड़ा. वह भी खेल पदाधिकारियों व सरकार की सुविधाओं की वजह से नहीं, बल्कि साक्षी मलिक और पी वी सिंधु की अपनी मेहनत की वजह से मैडल प्राप्त हुए हैं. जिस तरह से मैडल के बाद दोनों खिलाडि़यों पर धनवर्षा हुई, यदि यही धनवर्षा रियो से पहले खिलाडि़यों पर होती तो शायद आज पदकों की संख्या कुछ और ही होती.

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