लंदन में चैंपियंस ट्रौफी में रजत पदक जीतने के बाद भारतीय हौकी टीम ने रियो ओलिंपिक में उम्मीदें बढ़ा दी हैं. एक समय में भारतीय हौकी की तूती बोलती थी. पिछले कुछ वर्षों में हौकी की जो दुर्दशा हुई है, इस के लिए खेल से जुड़े अधिकारियों और सरकार की उदासीनता कहीं न कहीं जिम्मेदार है. चैंपियंस ट्रौफी जैसे कई बड़ेबड़े खेल हुए मगर भारतीय हौकी को हमेशा नाकामयाबी मिली. इस के लिए भारतीय हौकी की कई पीढि़यां खप गईं, बावजूद इस के वह शीर्ष पर पहुंच न सकी.

लंदन में जीत से आस बढ़ी है. सुरिंदर सिंह, पाल सिंह सोढ़ी, परगट सिंह, सुरजीत सिंह, मुहम्मद शाहिद और जफर इकबाल जैसे खिलाडि़यों ने जीतोड़ मेहनत की है. हालांकि अगस्त में होने वाले रियो ओलिंपिक के लिए भारतीय पुरुष टीम की कमान गोलकीपर पीआर श्रीजेश के हाथों में होगी.

लेकिन क्रिकेट की तूती बोलने वाले इस देश में भारतीय हौकी टीम के लिए कम चुनौती नहीं है क्योंकि एक समय में गलीनुक्कड़ों में हौकी के डंडे लिए बच्चों को खेलते देखा जाता था पर अब वह जगह क्रिकेट के बल्ले ने ले ली है.

इज्जत, शोहरत, चकाचौंध व पैसा अब केवल क्रिकेट में ही दिखाई पड़ता है. अब हर कोई क्रिकेट में ही अपना कैरियर तलाशता है. ऐसे में हौकी से संबंधित अधिकारियों के सामने सब से बड़ी चुनौती है कि वे इस खेल में कैरियर तलाशने वाले खिलाडि़यों को अच्छी सुविधा दें, अच्छी ट्रेनिंग की सुविधाएं उपलब्ध करवाएं, हौकी को दयनीय स्थिति से उबारें. क्रिकेट की ही तरह इसे भी लोकप्रिय बनाएं.

साथ ही, खिलाडि़यों को भी अपनी कमजोरी को दुरुस्त करना होगा. जिस तरह का आत्मविश्वास चैंपियंस ट्रौफी में खिलाडि़यों ने दिखाया उसे बरकरार रखना होगा, अपनी कुशलता, गति और दमखम की कसौटी पर खरा उतरना होगा तभी वे जरमनी, हौलैंड, आस्ट्रिया और ब्रिटेन जैसी ताकतवर टीमों को पछाड़ पाएंगे. भारतीय हौकी टीम की सब से बड़ी कमजोरी रही है उन का प्रतिद्वंद्वी टीमों की श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के सामने स्वयं को हलका मानने की भूल कर दबाव में आ जाना.

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