महानगरों में मौल संस्कृति का प्रचलन शुरू हुआ था तो खुदरा व्यापारियों की आजीविका को ले कर तरहतरह की चिंताएं व्यक्त की गईं. साथ ही यह भी चर्चा रही कि अपने महल्ले के आसपास जरूरत का सामान खरीदने के आदी भारतीय समाज में मौल संस्कृति ज्यादा प्रभावशाली साबित नहीं होगी. शुरुआती दौर में ये दोनों चिंताएं बेबुनियाद साबित हुईं लेकिन इस संस्कृति का असली रंग अब दिखने लगा है. महानगरों में फैला मौल का जाल कमजोर पड़ रहा है और कारोबारी जिस उम्मीद में मौल में घुसे थे उन्हें उतनी सफलता मिलती नजर नहीं आ रही है.
वाणिज्य उद्योग संगठन यानी एसोचेम का कहना है कि मैट्रो शहरों में 300 से 350 मौल ऐसे हैं जिन में 75-80 फीसदी जगह खाली पड़ी है. दरअसल, आम उपभोक्ता की यह धारणा बन गई है कि मौल में सामान अपेक्षाकृत महंगा होता है. उधर, छोटे शहरों के उपभोक्ता वर्ग की धारणा इस के उलट है. उस का मानना है कि मौल संस्कृति ठीक है. वहां अच्छी क्वालिटी और अपेक्षाकृत सस्ती दर पर बेहतर सामान मिलता है. साथ ही, मौल में खरीद से उस की महानगर की जीवनशैली जैसे संभ्रांत होने के एहसास की भी पूर्ति हो जाती है. तेजी से आय में बढ़ोतरी छोटे नगरों के उपभोक्ताओं को ‘ऊंची दुकान’ पर आने को उकसा रही है. उसे लगता है कि ऐसा कर के उस के संभ्रांत होने की पुष्टि हो रही है.
शायद यही वजह है कि मौल छोटे नगरों में तेजी से विकसित हो रहे हैं. मौल निर्माण से जुड़ी एक सलाहकार कंपनी का कहना है कि अगले 5-7 साल में करीब एक हजार मौल विकसित किए जाने हैं. इन में 70 प्रतिशत छोटे नगरों में विकसित होने हैं.
कंपनी का कहना है कि मौल देहरादून, रायपुर, लखनऊ, नागपुर, कोच्चि, विजयवाड़ा और मैसूर जैसे शहरों में करीब 700 बनाए जाने की योजना है. छोटे नगरों में उपभोक्ता के पास पैसा है, जगह है और व्यापारियों के सामने कम प्रतिस्पर्धा है, इसलिए इन नगरों में मौल संस्कृति तेजी से पनप रही है. स्थिति यह है कि दूरदराज के राज्यों के जिला मुख्यालयों में भी, छोटे ही सही, मौल तैयार हो रहे हैं.
 

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