चीन भी अब आर्थिक मुश्किल की चपेट में आ गया है. अंतर्राष्ट्रीय शेयर बाजार में उस के शेयरों में आई भारी गिरावट बताती है कि उस की अर्थव्यवस्था में सबकुछ ठीकठाक नहीं है. अब चीन के चुंधिया देने वाले चमत्कार की कलई खुलती जा रही है. चीन के गुब्बारे की हवा कभी भी निकल सकती है. यह प्रक्रिया उसे सोवियत संघ के रास्ते पर भी  ले जा सकती है. कई अर्थशास्त्री कहते हैं कि निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था बनाने वाले एशियाई टाइगर देशों का जो हश्र हुआ वही चीन का भी हो सकता है या हो रहा है.  अमेरिका के प्रतिष्ठित शोध संस्थान स्ट्रेटफोर ने 22 जनवरी, 2010 को आगामी दशक के बारे में चौंकाने वाली कई  भविष्यवाणियां की थीं उन में सब से प्रमुख भविष्यवाणी यह थी कि इस दशक में चीन की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी. इस भविष्यवाणी ने खासतौर पर इसलिए भी चौंकाया है कि अभी 2 दशक पहले तो चीन का एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उदय हुआ है. जिस तरह उगते सूर्य को सभी नमस्कार करते हैं उसी तरह उदीयमान चीन का दुनियाभर में स्तुतिगान हो रहा था. अचानक यह क्या हो गया कि चीन की अर्थव्यवस्था के लिए शोकगीत लिखे जाने लगे.

चीन के महाशक्ति बन कर उभरने के बाद ऐसी पुस्तकों की बाढ़ सी आ गई थी जो चीन की चुंधिया देने वाली तरक्की का जायजा लेती हैं. इन में विलियम ओवरहौल्ट की ‘राइज औफ चाइना’ और टेरिल रास की ‘द न्यू चाइनीज एंपायर’ प्रमुख हैं. लेकिन जल्दी ही चीन की जेट गति से प्रगति का घोर अंधेरा पहलू कुछ लोगों को नजर आने लगा. उन्हें अपने विश्लेषण से लगा कि चीन कुछ जल्दी ही महाशक्ति बन गया है, इसलिए वह एक ऐसी महाशक्ति है जिस की छाती तो फौलादी है मगर पांव मिट्टी के हैं. खासकर, उस का आर्थिक विकास एक ऐसा बुलबुला है जो कभी भी फूट सकता है. ऐसी पुस्तकों में गोर्डन चांग की ‘द कमिंग कोलैप्स औफ चायना’, जौय स्टडवेल की ‘द चायना ड्रीम’ प्रमुख हैं. इस के अलावा ‘चाइनीज इकोनौमी इन क्राइसिस’ और ‘चाइना डीकंस्ट्रक्ट’ जैसी अकादमिक पुस्तकों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है.

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