‘‘खेलों से राजनीति को हटा दो, गली गली में चैम्पियन मिलेंगे.’’ इस मूल मंत्र को प्रचारित करने के लिए आर माधवन ने राज कुमार हिरानी के साथ मिलकर महिला बाक्सरों की स्थिति वगैरह को चित्रित करने के लिए हिंदी में फिल्म ‘‘साला खड़ूस’’ और तमिल में ‘‘इरूद्धि सुत्तरू’’ का निर्माण किया है. माना कि यह फिल्म है, इस वजह से निर्माता व निर्देशक को सिनेमाई स्वतंत्रता का हक है. मगर जब आप किसी खेल पर केंद्रित फिल्म बना रहे हैं, तो उस खेल की कुछ सच्चाई व उस खेल की तकनीक से आप समझौता करें, यह तो पूरी तरह से गलत है.

फिल्म देखने के बाद निर्माता आर माधवन और निर्देशक सुधा कोंगरा की यह बात गले नहीं उतरती कि इस फिल्म का निर्माण करने से पहले उन्होंने महिला बाक्सिंग पर कई माह तक रिसर्च कर स्केच वगैरह बनाए थे. सबसे बड़ी लाजिक की बात यह है कि एक बाक्सर या बाक्सिंग का कोच लंबे बाल नहीं रखता और न ही दाढ़ी रखता है. क्योंकि लंबे बाल होने पर पसीने के साथ उसके बाल की लतें चेहरे पर या आंख पर आती है, जिससे खिलाड़ी का ध्यान भंग हो जाता है. दूसरी बात चेहरे पर दाढ़ी होने पर चेहरे पर लगी चोट के अहसास नहीं हो सकता. पूरी फिल्म में बाक्सिंग मैच के जो भी सीन हैं, उनमें भी बाक्सिंग का खेल सही ढंग से उभर नहीं पाता है. इसकी वजह फिल्म का कम बजट होना भी हो सकता है. फिल्म देखकर लगता है कि आर माधवन ने अपनी ‘लवर ब्वाय’ की ईमेज को बदलने के लिए यह फिल्म बनायी है और इस फिल्म से वह साबित करना चाहते हैं कि वह भी गुस्सैल किरदार निभा सकते हैं. पर आर.माधवन कहीं से भी एक स्पोर्ट्स मैन या बाक्सिंग कोच के किरदार में फिट नजर नहीं आते हैं. पर वह एक गुस्सैल गुरू जरुर नजर आते हैं. इसी के साथ गुरू –शिष्य परंपरा के साथ गुरू व शिष्य के बीच जो रिश्ता होना चाहिए, उसका सही चित्रण है.

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