2015 की सफल फिल्म ‘‘बेबी’’ की प्रिक्वअल फिल्म “नाम शबाना’’ देखकर अहसास हुआ कि बेहतरीन कलाकारों और बेहतरीन परफार्मेंस के बावजूद कमजोर पटकथा व निर्देशक की अपनी कमजोरियों के चलते किस तरह फिल्म स्तरहीन हो जाती है. फिल्म ‘‘बेबी’’ की सफलता को भुनाने के लिए लेखक व निर्माता नीरज पांडे ने फिल्म ‘‘बेबी’’ के एक पात्र शबाना की पिछली जिंदगी को पेश करने के लिए प्रिक्वअल फिल्म ‘‘नाम शबाना’’ में जो कहानी गढ़ी है, वह अविश्वसनीय ही नहीं बल्कि तर्क हीन लगती है. फिल्म में नारी उत्थान की बात करने और नारी को पुरुषों के मुकाबले श्रेष्ठ साबित करने के लिए देश की सुरक्षा के लिए मर मिटने वाले जासूसों को जिस तरह से दिखाया गया है, उससे लेखक का दिमागी दिवालियापन ही सामने आता है.

फिल्म की कहानी मुंबई के डोंगरी इलाके की मुस्लिम लड़की शबाना खान (तापसी पन्नू) की है. उसने बचपन से देखा है कि किस तरह उसके पिता उसकी मां की पिटाई करते थे. एक दिन जब उसके पिता उसकी मां की पिटाई कर रहे होते हैं, तभी शबाना गुस्से में पिता के सिर पर वार करती है और पिता की मौत हो जाती है. जिसकी वजह से उसे दो साल के लिए बाल सुधार गृह भेज दिया जाता है. उसके बाद वह कालेज में जूडो की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लगती  है. पता चलता है कि उसकी सारी हकरतों पर देश की जासूसी संस्था से लोगों को जोड़ने के लिए कार्यरत अफसर रणवीर (मनोज बाजपेयी) के इशारे पर उस पर कुछ लोग नजर रख रहे हैं. शबाना, जय नामक लड़के से प्यार करती है. एक रात उसके सामने चार लड़कों में से एक करण, जय की हत्या कर देता है. अब शबाना, जय की मौत का बदला लेना चाहती है. रणवीर, शबाना की इस शर्त पर मदद करता है कि वह देश की सुरक्षा के लिए कार्यरत इस संस्था से जुडे़.

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