यदि आप सत्तर के दशक की अमिताभ बच्चन वाली एंग्री यंग मैन वाली अथवा सत्तर के दशक की गैंगस्टर फिल्म देखने के शौकीन हैं, तो शायद आपको फिल्म ‘रईस’ पसंद आ जाए. लेकिन कथानक के स्तर पर ‘नई बोतल पुरानी शराब’ वाला मसला है. इसी के साथ कहानी सुनाते हुए निर्देशक दर्शक को बांध कर नहीं रख पाते.
फिल्म ‘रईस’ खत्म होने के बाद दिमाग में पहला सवाल यही उठता है कि आज शाहरुख खान, फरहान अख्तर व राहुल ढोलकिया को अचानक गैंगस्टर को महिमा मंडित करने वाली कहानी पर फिल्म बनाने की जरुरत क्यों महसूस हुई, जबकि सत्तर के दशक में इस तरह की तमाम फिल्में पहले ही बन चुकी हैं. यदि निर्माता दावा करते कि वह गुजरात के शराब माफिया लतीफ की बायोग्राफी को पेश कर रह हैं, तब तो बात हजम की जा सकती थी. मगर फिल्म की शुरुआत में ही घोषणा की गयी है कि यह काल्पनिक कहानी है. पर फिल्मकार भूल गए कि आज 2017 में सत्तर के दशक की कहानी का ताना बाना अपने आप में बेमानी और अप्रसांगिक है.
रईस (शाहरुख खान) अपनी मां (शीबा चड्ढा) के साथ गुजरात के फतेपुर में रहता है. बचपन में उसे दिखायी नहीं देता. डॉक्टर उसे चश्मा लगाने की सलाह देता है. मगर रईस की मां के पास चश्मे की कीमत देने के पैसे नही हैं. तो वह अपने मित्र सादिक के साथ मिलकर गांधी जी की मूर्ति से चश्मा चुरा लाता है. पर वह सिर्फ फ्रेम होता है, उसके बाद डॉक्टर उसे मुफ्त में चश्मा दे देता है. वह हर साल मुहर्रम में मातम मनाने निकालता है.