बॉलीवुड में इस बात की उम्मीद करना मूर्खता ही कही जाएगी कि जिस निर्देशक ने अपने करियर की पहली फिल्म बेहतर सफल फिल्म दी है, वह दूसरी फिल्म भी अच्छी बनाएगा. अब तक बॉलीवुड में अधिकांश निर्देशक पहली फिल्म के बाद दूसरी फिल्म में बुरी तरह से असफल होते आए हैं.
यह बात फिल्म ‘डियर जिंदगी’ देखने के बाद दिमाग में ताजा हो जाती है. चार वर्ष पहले बेहतरीन फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की निर्देशक गौरी शिंदे की दूसरी फिल्म ‘डियर जिंदगी’ देखना जान लेवा अनुभव से गुजरने जैसा है. नारीवाद व नारी स्वतंत्रता के नाम पर अतिघटिया कहानी, अति उबाउ और इंसानी मनोविज्ञान के विकृत रूप का नाम है, फिल्म ‘डियर जिंदगी’. इतना ही नहीं इंसान युवा होकर जो कुछ बनता है, उसकी नींव बचपन में ही रखी जाती है, इस मुद्दे को लेखक व निर्देशक सही ढंग से फिल्म में पिरोने में असफल रहती हैं.
यह कहानी है परफेक्ट जिंदगी व जीवनसाथी की तलाश कर रही एक उभरती मुंबई फिल्म नगरी की सिनेमैटोग्राफर कायरा (आलिया भट्ट) की, जिसे अपने गोवा में रह रहे माता पिता के साथ रहने में समस्या नजर आती है. उसकी तमन्ना अपनी फिल्म निर्देशित करने की है. एक विज्ञापन फिल्म की शूटिंग के दौरान उसके अभिनेता रघुवेंद्र (कुणाल कपूर) के साथ वह हमबिस्तर हो जाती है. मगर उसके साथ जिंदगी गुजारने का वादा नहीं करती है, तो रघुवेंद्र किसी अन्य लड़की से सगाई कर लेता है, यह बात आलिया को पसंद नहीं आती. जबकि रघुवेंद्र, कायरा को न्यूयार्क में फिल्मायी जाने वाली एक फिल्म में कैमरामैन के रूप में काम करने का मौका दिला रहा है. वह एक काफी बड़े रेस्टारेंट के मालिक सिड (अंगद बेदी) के साथ भी जुड़ी हई है. मगर जैसे ही वह सिड को बताती है कि वह रघुवेंद्र के साथ एक बार हमबिस्तर हो चुकी है, सिड कायरा से दूर चला जाता है.