पीके

ईश्वर है या नहीं, पूजा करने से कुछ मिलता है या नहीं, पुजारी, मौलवी, पादरी, गंथी किसी काम के हैं या नहीं, इन धर्मों के धर्मस्थल कुछ देते हैं या नहीं, आस्था विश्वास का विषय है या सत्यअसत्य का आदि प्रश्न बहुत गंभीर हैं और इन का आमिर खान व राजकुमार हिरानी ने जिस तरह से ट्रीटमैंट किया है, उस ने विषय को छुआ भर है. यह कहना कि फिल्म पीके किसी की पोल खोल पाती है गलत होगा, क्योंकि जो धरातल व वातावरण इस तरह की फिल्म को चाहिए था, वह ‘पीके’ नहीं दे पाई. धंधेबाजों पर कटाक्ष तो इस फिल्म में खूब किया गया है पर भाषणों से और बहुत अतार्किक ढंग से. बात जो कही गई है वह 100 पैसे सत्य है.

भगवान या ईश्वर की कल्पना कब की गई थी और क्यों की गई थी, यह कहना कठिन है पर इतना पक्का है कि जब से मानव ने सभ्य होना शुरू किया, उसे धूर्त लोगों ने धर्म के चंगुल में फंसा लिया है और शासकों ने धर्म को आम लोगों को नियंत्रित करने का अचूक हथियार मान कर, खूब इस्तेमाल किया, आज भी कर रहे हैं. धर्म के नाम पर धर्म के दलालों ने जितना असत्य, अनाचार, अत्याचार, आतंक, हिंसा, विभाजन, लूट, धोखा, भेदभाव किया है, उतना तो लुटेरों, गुंडों, डाकुओं ने नहीं किया. मजेदार बात यह है कि ये सब करने वाले साफसुथरे रहने का ढोंग सफलता से करते रहे हैं और हर तरह के आक्षेप, आपत्तियों और तार्किक बहसों के बावजूद वे आज भी वैसे ही हैं. या यों कहिए कि और मजबूत हो गए हैं. इस विषय पर एक काल्पनिक ग्रह से आए एलियन के जरिए पृथ्वीवासियों के बीच सुधार करवाने की चेष्टा इस फिल्म की बड़ी कमजोरी है.

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