‘चश्मे बद्दूर’ 1981 में आई सई परांजपे द्वारा निर्देशित फिल्म का रीमेक है. फिल्म युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई गई है. चूंकि फिल्म डेविड धवन द्वारा निर्देशित है, इसलिए चालू मसाले, घटिया जोक्स, ‘साला’, ‘कमीना’, ‘उल्लू का पट्ठा’ जैसी गालियां न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता. ओरिजनल फिल्म में फारुक शेख, राकेश बेदी, रवि वासवानी और दीप्ति नवल ने इतना बढि़या काम किया था कि दर्शक आज भी उसे भूले नहीं हैं.

नई ‘चश्मे बद्दूर’ सई परांजपे की फिल्म से एकदम अलग है. कौमेडी उस फिल्म में भी थी, इस में भी है मगर ब्रेनलैस है. फिल्म के गीतों में घटिया लफ्जों का इस्तेमाल किया गया है. ‘हर एक दोस्त कमीना होता है...’, ‘...इश्क महल्ला, यहां सबकुछ खुल्लमखुल्ला...’ कई संवाद भी इसी तरह के हैं. एक संवाद में तो लिलिट दुबे को ‘ढकी हुई मल्लिका शेरावत’ तक कह दिया गया है. ऋषि कपूर का इस्तेमाल सही ढंग से नहीं हो पाया है. ओरिजनल फिल्म में यही रोल लल्लन मियां यानी सईद जाफरी का था, जिसे आज भी याद किया जाता है.

डेविड धवन ने पुरानी कहानी को अपने अंदाज में फिट किया है. पिछली फिल्म की कहानी दिल्ली की थी, इस फिल्म की कहानी गोआ की है. सिद्धार्थ उर्फ सिड (अली जफर), जय (सिद्धार्थ) और ओमी (दिव्येंदु शर्मा) 3 दोस्त हैं और गोआ में जोसफीन (लिलिट दुबे) के किराएदार हैं. तीनों कड़के हैं, किराया देने तक का उन के पास पैसा नहीं है. एक दिन ओमी की नजर सीमा (तापसी पन्नू) पर पड़ती है. वह उसे पटाने की कोशिश करता है परंतु पिट जाता है. जय भी सीमा को पटाने की कोशिश करता है परंतु सफल नहीं हो पाता. दोनों सिड को सीमा और अपनेअपने चक्कर के बारे में बढ़ाचढ़ा कर बताते हैं. एक दिन अचानक सीमा की मुलाकात सिड से हो जाती है. दोनों में प्यार हो जाता है. ओमी और जय से यह देखा नहीं जाता. वे उन का ब्रेकअप करा देते हैं. लेकिन जब उन्हें अपनी गलती महसूस होती है तो वे दोनों को फिर से मिलवा देते हैं. इसी कहानी में जोसेफ (ऋषि कपूर) और जोसफीन के बीच प्रेमप्रसंग भी है.

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